Wednesday, February 25, 2015

मोदी उस देश के प्रधानमंत्री हैं, जिसकी अधिकांश आबादी गांवों में बसती है।

'भू-अधिग्रहण विधेयक को लेकर बचाव में आने की जरूरत नहीं है। नया कानून किसान और गरीबों के हितों में है। इस पर फैलाई जा रही निरर्थक बातों को मजबूती से खारिज करें।'
शब्दश: तो नहीं पर लगभग यही आह्वान प्रधानमंत्री मोदी का अपने सांसदों से है। नया भू-अधिग्रहण विधेयक लाने से पहले कल सुबह मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के सांसदों की बैठक बुलाकर इसी तरह की बातें कही हैं। यह बात सिरे से ही समझ से परे है कि संप्रग-दो की सरकार ने जिस सौ साल से अधिक पुराने भू-अधिग्रहण कानून को बदलने के लिए सभी पार्टियों की आम सम्मति से 2013 में नया कानून पारित करवाया था और जिसमें आज सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी की केवल पूरी सहमति थी बल्कि उनके सुझावों को उक्त कानून में शामिल भी किया गया। आश्चर्य तो यह है कि तब लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता भाजपा की सुषमा स्वराज ने जिन मुद्दों की पुरजोर पैरवी की उन्हें खुद उनकी सरकार हटा रही है-जिनमें अधिग्रहण क्षेत्र के तीन-चौथाई किसानों की सहमति होना तथा पांच साल में अधिग्रहित जमीन पर परियोजना शुरू नहीं होने पर किसानों को यह अधिकार दिया गया था कि वे अपनी जमीन वापस ले सकते हैं।
इससे भी ज्यादा विचारणीय यह है कि 2013 का उक्त कानून मोदी के प्रधानमंत्री बनने से दो माह पहले ही लागू हुआ था। मोदी को सत्ता संभाले मात्र नौ महीने हुए हैं यानी सौ से ज्यादा वर्ष से लागू भू-अधिग्रहण कानून में बदलाव को कुल एक वर्ष भी नहीं हुआ और सरकार उसे फिर बदलने को आमादा है। यही नहीं मोदी सरकार ने पिछले संसद सत्र के तुरन्त बाद ही नवम्बर 2014 में भू-अधिग्रहण के इन नये प्रावधानों को अध्यादेश द्वारा लागू भी कर दिया।
भाजपा और उनकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना से ही हिन्दुओं में भी उच्चवर्गीय मानसिकता की सोच रखने वालों का समूह है। इसके प्रमाण में यह बताया जा सकता है कि स्थापना से आज तक संघप्रमुख जैसे पद तक दलित तो क्या कोई पिछड़ा भी नहीं पहुंच पाया है। सभी जानते हैं कि इन जैसों की उच्चवर्गीय मानसिकता पिछड़ों, दलितों को नासमझ और गंवार मानती आई है और यह भी कि इन निम्नवर्गीय लोगों में अपना भला-बुरा सोचने-समझने की क्षमता नहीं मानती। इसलिए ऐसों का भला-बुरा सोचने की जिम्मेदारी भी तथाकथित उच्च वर्गों की ही मानते हैं। प्रधानमंत्री मोदी चाहे अपने को पिछड़े वर्ग से आया बताते हों लेकिन उनका प्रशिक्षण उनकी 'पिछड़ी सोच' के आड़े रहा है। उच्च वर्गों की तरह उन्हें भी लगता है कि गांवों में रहने वाले, पिछड़े और दलित अपना भला-बुरा नहीं सोच सकते। इसलिए उनके लिए जो कुछ हम कर रहे हैं, वही सही है। यहां तक कि उनके उक्त दंभी संबोधन में लोकतांत्रिकता तो क्या सामान्य विनम्रता भी सिरे से गायब है। लेकिन पता नहीं मोदी के इस तरह के तेवर चीन और पाकिस्तान के सीमा विवादों में कहां दुबक जाते हैं। वैसे 'विनायक' को यह लगता है कि चीन-पाकिस्तान के मामलों की मोदी में असल समझ आने की ही यह परिणति है।
'श्रेष्ठ होने' की संघ की इसी सोच से छत्तीसगढ़ में रमनसिंह सरकार को हांक रहे हैं। वहां आदिवासियों से लगभग इसी मानसिकता से व्यवहार किया जा रहा है। श्रेष्ठ और अपने को ज्यादा समझदार मानने का भाव ही अमानवीय है। भारत में तो सदियों से उच्च, सबल और समर्थ-वर्ग इसी मानसिकता से दुर्बलों का शोषण करते आए हैं। संसद में कल रखा गया भू-अधिग्रहण विधेयक भी इसी मानसिकता की देन है। सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि लोकसभा में तो वह संख्याबल से इसे पारित करवा लेगी लेकिन राज्यसभा में इसे पारित करवाना असंभव है। वह तो तब और भी मुश्किल है जब मोदी की सरकार में शामिल शिवसेना और अकाली दल भी इस विधेयक से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। ऐसे में सरकार संविधान के उस प्रावधान का सहारा ले सकती है जिसमें दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान है। संयुक्त अधिवेशन में भाजपा इस विधेयक को पारित करवाने में सफल हो सकती है।
ऐसी दंभी स्थितियों से लगता है कि किसी दल को पूर्ण बहुमत मिलना भी उचित नहीं। शायद इसीलिए संप्रग सरकार के दोनों कार्यकाल में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत का मिलना देश को ऐसी निरंकुश परिस्थितियों से बचा पाया और भारत जैसे देश में तब वह और भी जरूरी हो जाता है जहां की अधिकांश जनता गांवों में वास करती है। नीतियां भी उनकी जरूरतों को ही ध्यान में रखकर बननी चाहिए कि शहरियों और उच्च होने की मानसिकता वालों के हिसाब से जिनके पास उच्च कुल में पैदा होने या भाग्यवादी होने और वह ही समझदार हैं, जैसे कुतर्क होते हैं। रही बात विकास की तो इसके शहरी मॉडल को 'विनायक' एक से अधिक बार अमानवीय बता चुका है।

25 फरवरी, 2015

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