Tuesday, February 24, 2015

कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उपाध्यक्ष और संभावित अध्यक्ष राहुल गांधी भारत से उस समय बाहर हैं जब संसद का बजट सत्र चल रहा है। राहुल केवल लोकसभा से सांसद हैं बल्कि अधिकांश कांग्रेसी उन्हें अपनी बैसाखी भी मानते हैं। विचार आधारित वामपार्टियां जब मुद्दा आधारित राजनीति करने लगी हों, ऐसे समय में कांग्रेस में विचार ढूंढऩा समय गंवाना है। राजीव गांधी की हत्या के बाद या कहें पिछली सदी के आखिरी दशक के पूर्वाद्र्ध से कांग्रेस पार्टी बिना किसी चामत्कारिक व्यक्तित्व के ठीक-ठाक ही रही, बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन नरसिम्हाराव सोने नहीं चले जाते तो। अन्यथा  कांग्रेस पार्टी बिना चामत्कारिक व्यक्तित्व के रही ही नहीं।
कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी अपनी अस्वस्थता तथा पार्टी की ऐतिहासिक बदतरी के बाद मात्र औपचारिक अध्यक्ष की भूमिका में हैं। जैसी कि खबरें छन कर रही हैं उसके अनुसार उनका 'नाबालिग' पुत्र ही बगावती तेवरों में है। राजनीतिक पार्टियों के इतिहासकार जब कांग्रेस का इतिहास लिखेंगे तो उसका अधिकांश हिस्सा नेहरू-गांधी परिवार से सम्बन्धित होगा। आजादी बाद जवाहरलाल नेहरू को पार्टी नेता के रूप में लगभग प्रश्नातीत माना जा सकता है। लेकिन, इन्दिरा गांधी के विचलन में तब के उन पार्टी धुरन्धरों को ज्यादा जिम्मेदार माना जा सकता है जिन्होंने  उन्हें 'मोम की गुडिय़ा' मान कर सत्ता सौंपी थी। इन्दिरा गांधी के संस्कारों में नेहरू परिवार के अलावा मोहनदास कर्मचन्द गांधी का योगदान भी था। अन्यथा पुत्र मोह में आपातकाल लगाने वाली इन्दिरा गांधी अपने किए पर पुनर्विचार कदापि नहीं करती। संजय गांधी की संगत जैसी भी थी उनसे बने उनके संस्कारों को पूरे देश को भोगना पड़ा।
राजनीति में बिल्कुल रुचि रखने वाले राजीव गांधी को पार्टी में लाया गया तो वे कोरी स्लेट थे। यहां तक कि उन्हें सामान्य सार्वजनिक समझ भी नहीं थी अन्यथा इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले उद्बोधन में सिख नरसंहार पर उस ओछी प्रतिक्रिया को उच्चारित नहीं करते जिसमें वे कह गये कि- 'कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है।'
राजीव गांधी ने नये माहौल को सीखने समझने में तत्परता दिखायी। पश्चिम से होते हुए भी सोनिया गांधी सामान्य भारतीय गृहिणी के रूप में और राजीव की हत्या के बाद एक आदर्श भारतीय विधवा के रूप में पेश आईं इसके लिए उनकी तारीफ कम से कम रूढ़ परम्परावादियों को तो करनी ही चाहिए। वह चाहते हुए भी राजनीति में आईं तो इसके लिए कोसना उन कांग्रेसियों को चाहिए जो बिना किसी चामत्कारिक व्यक्तित्व के अपने को असमर्थ मानते रहे हैं। सोनिया ने जैसी भी राजनीति की उसे सीमित तौर पर आम राय की राजनीति कह सकते हैं- सोनिया की राजनीति के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि समूहविशेष से संचालित थीं। बिखरा विपक्ष हो या विफलताएं, इस सदी के शुरू में सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस फिर खड़ी हुई और उनके नेतृत्व में दस साल राज भी चला। राज का मूल्यांकन अलग मुद्दा है। उस पर 'विनायक'जब तब अपनी राय देता रहा है। उसे यदि सफल मानते तो कांग्रेस की गत आज वाली नहीं होती। बात कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार की हो रही है। इसलिए जरूरी है राहुल पर भी बात करें और प्रियंका पर भी। लगता है सोनिया का सामथ्र्य चुक गया है। इतिहास में सबसे बुरी गत से कांग्रेस को निकालना उनकी अन्तिम कवायद हो सकती है। कांग्रेस में बैसाखीबाजों के जमावड़े और राहुल जैसे 'अनाड़ी' पर उनका दारमदार सोनिया की सीमा मान सकते हैं। राहुल की परवरिश इन्दिरा गांधी को मिली परवरिश तो दूर की बात राजीव जैसी भी नहीं रही। राहुल की स्थिति बड़े घरों के उन बच्चों की तरह है जो घर और अपने आसपास से आगे कुछ सीख ही नहीं पाया हो। स्थानीय स्तर पर राहुल की तुलना पूर्व सांसद डॉ. करणीसिंह के बेटे और पारिवारिक उत्तराधिकारी नरेन्द्रसिंह से की जा सकती है।
बैसाखीबाज कांग्रेसियों ने जब उन्हें बैसाखी बनाना चाहा तब तक सीखने-समझने की उनकी उक्त उम्र निकल चुकी थी। अपने पिता जैसे संस्कार उन्होंने पाये नहीं कि गुजरी उम्र के बाद भी वह सीख सकें। कुछ सीखने की सामथ्र्य उनमें है भी नहीं। रही बात प्रियंका की तो उसकी स्थिति उस भारतीय गृहिणी के समान है जो अपने पति का मान परिवार को बचाये रखने के लिए ही सहमी रहती है। 'पीहर' की चिंता तो करती है लेकिन अपनी गृहस्थी की कीमत पर नहीं। प्रियंका राजनीति में आकर कोई चमत्कार कर देगी इसकी घोषणा तो नहीं की जा सकती लेकिन व्यवहार से लगता है वह राहुल से थोड़ा ज्यादा जानती-समझती हैं। ऐसे में कांग्रेसियों को चाहिए कि वे बैसाखियों का भरोसा छोड़कर कांग्रेस को सही अर्थों में एक लोकतांत्रिक पार्टी बनाने में जुटें अन्यथा पार्टी इतिहास का हिस्सा ही बन जायेगी।

24 फरवरी, 2015

No comments: