Monday, February 23, 2015

संसद का बजट सत्र चले सुचारु

मोदी सरकार का पहला बजट सत्र आज शुरू हो गया है। चालू सप्ताह में केवल रेल और आम बजट रखे जाने हैं बल्कि उन छह अध्यादेशों को कानूनी जामा पहनाना है जिन्हें पिछले सत्र के सुचारु चल पाने के चलते बाद में लाया गया। मान लेते हैं संप्रग-दो की सरकार निकम्मी और नाकारा थी लेकिन विपक्ष ने भी तब अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं किया। पता नहीं, भाजपा ने यह क्यों तय कर लिया कि सदन को चलने ही नहीं देंगे। हो सकता है भाजपा ने यह मान लिया हो कि उनके पास बहस के लिए कोई तार्किक मुद्दा नहीं। तब मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी थी जिसके नेतृत्व में वर्तमान सरकार चल रही है। 1951-52 के चुनावों के बाद लोकसभा स्वतंत्र भारत के नागरिकों द्वारा चुने हुए सांसदों की सभा हो ली थी और केवल लोकसभा बल्कि राज्यसभा में गंभीर बहसों के उदाहरण जब तब दिए जाते रहे हैं और कई नेताओं को ऐसे सांसद के रूप में भी याद किया जाता रहा है जो मुद्दों पर पूरी तैयारी के साथ आते थे। पक्ष, विपक्ष दोनों ओर के सांसद तर्कों, उदाहरणों और वस्तुस्थिति से एक-दूसरे को पूरा जोर भी करवाते थे।
पिछली सदी के नवें दशक के बाद से जिस तरह के सांसद चुन कर आते रहे हैं उससे लगता है इनमें से अधिकांश मात्र राज भोगने की आकांक्षा लिए ही आते हैं। ये सांसद हर दूसरे-तीसरे साल अपने मानदेय, भत्ते और सुविधाएं बढ़ा लेते हैं। इस सदी में तो संसद के हाल और भी बुरे हो गये। मान लेते हैं जनता ने चुन कर भेजा है तो जैसे भी हैं सिर-माथे हैं। लेकिन समझना चाहिए कि उन्हें मिली यह जिम्मेदारी और सुविधाएं आम-अवाम का ऋण है जिसे उन्हें आमजन के लिए अनुकूलताओं में वृद्धि कर चुकाना है। लेकिन देखा यह गया है कि ये सभी केवल उन समर्थ और प्रभावी समूहों के लिए काम करने लगे हैं जो कुल आबादी के पांच-दस प्रतिशत भी नहीं हैं।
मोदी द्वारा लाया गया भू-अधिग्रहण अध्यादेश इसका बड़ा उदाहरण है। पिछली संप्रग सरकार जब इस संबंधी संशोधन विधेयक लाई तो भाजपा ने कई दिनों तक उसे इसलिए पारित नहीं होने दिया कि यह किसान विरोधी है। जबकि उसे सौ साल से चली रही व्यवस्था से ज्यादा बेहतर माना गया था, जो था भी। संप्रग सरकार ने यह प्रावधान चाहा था कि अस्सी प्रतिशत बाशिन्दों की सहमति के बाद ही भूमि अधिग्रहण हो सके और विधेयक में उन्होंने सम्बन्धित अधिकारियों की जवाबदेही भी तय की थी। मोदी सरकार ने इन दोनों प्रावधानों को हटा कर अपनी असल मंशा बता दी कि वह किनके साथ है। जैसा कि 'विनायक' के इसी कालम में पहले भी कहा गया-नई अर्थव्यवस्था में आबादी के छोटे समूहों को लाभ पहुंचाने के लिए संप्रग सरकार द्वारा उठाए कदमों में जो झिझक देखी जाती थी-मोदी सरकार ये सब बेधड़क करने लगी है।
संसद के पिछले सत्र में विरोधियों द्वारा पैदा किए गये गतिरोध पर सदन के नेता और प्रधानमंत्री मोदी टेंटीजे हुए फिर रहे थे, उम्मीद की जानी चाहिए कि इन नौ महीनों में उनमें कुछ परिपक्वता आयी होगी। संभवत: इसी सब के चलते संसदीय कार्यमंत्री संसद को सुचारु चलने देने के आग्रह के साथ संप्रग सुप्रीमो सोनिया गांधी से औपचारिक भेंट कर आए लेकिन, लोकसभा अध्यक्ष द्वारा परम्परानुसार बुलाई सर्वदलीय बैठक में कांग्रेस बदला लेने के तेवरों में ही दीखी। दिल्ली चुनावों में लगे धक्के के बाद मोदी सरकार भी दबाव में है और उसने भू-अधिग्रहण अध्यादेश पर पुनर्विचार के संकेत दिए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि ढाई से तीन लाख रुपये प्रति मिनट के खर्चे पर चलने वाली संसद को ये प्रभावी पार्टियां और सांसद सुचारु चलने भी देंगे और देश की असल आम-अवाम जो कुल आबादी का तीन-चौथाई है और जो जीवन यापन की न्यूनतम जरूरतों और सुविधाओं से वंचित भी है, के लिए कुछ सकारात्मक सोचेंगे। हालांकि देश की अर्थव्यवस्था को जिस गेले डाल दिया गया है, उसमें ऐसी उम्मीद की गुंजाइश कम ही है लेकिन फिर भी उम्मीद तो कायम रखनी ही चाहिए।

23 फरवरी, 2015

No comments: