Friday, February 13, 2015

बलात्कार : मर्दी ‘संस्कार’

सोलह दिसम्बर, 2012 के दिल्ली निर्भया कांड के गुनहगारों पर कोई अंतिम फैसला अभी नहीं आया है। उस जघन्य बलात्कार को अंजाम देने वालों में एक नाबालिग था, जिसके बहाने किशोर अपराधों पर लम्बी-चौड़ी विधिक बहसें हो लीं। अन्ना अलख से उर्जित और आन्दोलित किशोर युवाओं ने निर्भया को आवाज दी। चूंकि मामला देश की राजधानी दिल्ली का था सो एकबारगी देश की सरकार भी सकते में गई। देशभर के युवाओं की स्व:स्फूर्ति ने तब बहम करवा दिया कि कम-से-कम बलात्कार जैसा मर्दानगी का कुकर्म अब रुक ही जाएगा। लेकिन ऐसा मानना मात्र भुलावा साबित हुआ। बलात्कार और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं केवल देश के विभिन्न हिस्सों में बल्कि दिल्ली में भी लगातार जारी हैं। आंकड़े तो यह बता रहे हैं कि निर्भया कांड के बाद ऐसी घटनाओं का औसत बढ़ा है।
इससे भी ज्यादा जघन्य कुकर्म देश की राजधानी दिल्ली से मात्र अस्सी किलोमीटर दूर रोहतक में हाल ही में हुआ। इसी 1 फरवरी, को _ाईस वर्षीया नेपाली युवती के साथ निर्भया जैसा या कहें उससे भी ज्यादा घिनौना कृत्य किया गया-उक्त युवती मानसिक तौर पर असामान्य थी और पीजीआई रोहतक में इलाज के लिए अपनी बहिन के यहां आई हुई थी। हमारा समाज स्त्री को नागरिक के रूप में दूसरे-तीसरे से लेकर चौथे-पांचवें तक के दर्जे की हैसियत में रखने के लिए सामान्यत: पुरुष को बचपन से जो मर्द होने के संस्कार देता है उसके चलते अनुकूलता मिलते ही पुरुषों में यह वहशीपन आता ही है। नौ दरिन्दे जो युवा ही हैं और पुरुष हैं-इसलिए मर्द तो हुए ही।
अपहरण कर युवती को सूने कमरे में ले जाने के बाद सभी नौ युवाओं ने पहले शराब पी और फिर उस युवती के साथ दुष्कर्म में लग गए। शहर से बाहर किए इस काम के बाद उन्होंने एकबारगी उस युवती को शहर की दिशा की ओर टोर दिया। बाद में खयाल उपजा कि इसने जाकर किसी को बता दिया तो मारे जाएंगे-उन्होंने जाकर उसे बीच रास्ते में केवल रोका बल्कि उसे मार भी दिया! उनकी दरिन्दगी की खुजली इतने में ही नहीं मिटी। फिर लौटे-उसके शव के गुप्तांग में कंकर-पत्थर घुसेड़े और चल दिए। फिर उनमें से किसी को ध्यान आया कि युवती ने नाक और कानों में सोने का कुछ पहने हुए है। वह फिर लौटे-और उन्हें तोड़ कर ले गये। इस घटना को हुए आज बारह दिन हो गये-देश में कहीं भी कोई मोमबत्ती जली और ही कोई आक्रोश उपजा!
हमारे देश में प्रत्येक बाईस मिनट में कहीं--कहीं किसी बालिका या किशोरी या युवती यहां तक अधेड़ और वृद्धा तक के साथ ऐसा घटित होता है यानी प्रतिदिन औसतन पैंसठ स्त्रियां 'मर्दानी मानसिकताÓ की शिकार होती हैं। यह आंकड़ा तो वह है जो किसी--किसी रूप में दर्ज होता है। ऐसी बहुत सी पीडि़ताएं होंगी जो चुपचाप बर्दाश्त कर लेती हैं या उनके परिजन मन मसोस कर रह जाते हैं। ये सब गिनती में जायें तो भी ऐसे आंकड़े शायद ही ऐसा कुछ कर पाएं कि हम इस मर्दवादी मानसिकता से थोड़ा बाहर सकें।
भारत ही क्यों दुनिया के बड़े हिस्से में सदियों से पुरुषों ने मर्द वर्चस्ववादी सामाजिक संरचना का पोषण किया है जिसमें स्त्री को स्त्री के अलावा सब कुछ मानने के संस्कार दिए जाते हैं-स्त्री देवी है, स्त्री पूजनीय है। स्त्री कुलक्षणी है, स्त्री वेश्या है। स्त्री डायन है आदि-आदि। ये सब विशेषण उस मर्दानी की चतुर अभिव्यक्तियां हैं जिसमें कोशिश रहती है कि स्त्री को स्त्री माना जाए। स्त्री मानेंगे तो उसे बराबरी का दर्जा देना होगा, और बराबरी का दर्जा देते ही पुरुष की मर्द मानसिकता का पोषण रुक जायेगा बलात्कार की घटनाएं ऐसे ही संस्कारों की परिणति हैं।
पैंतीस वर्ष पुरानी बीकानेर की एक चश्मदीद घटना से 'मर्दानी प्रतिक्रिया' से अवगत करवाना जरूरी लगा। शहर में एक युवती मोटरसाइकिल चलाने लगी थी, तब राजदूत मोटरसाइकिल हुआ करती थी। जब वह गुजरती तो शहर के लोगों के लिए वह युवती कौतुकीय चुनौती से कम नहीं होती थी।
एक दिन देखा कि वह पब्लिक पार्क स्थित गंगासिंह प्रतिमा के पास से गुजर रही थी, वहीं किनारे फुटपाथ पर दो-तीन युवक बैठे बतिया रहे थे। उनकी मर्दानगी एक युवती को मोटरसाइकिल चलाते देखना बर्दाश्त नहीं कर पायी। उनमें से एक ने तत्क्षण पास पड़ा ईंट का लगभग एक-तिहाई खोरिया उठाया और घुमाकर उसकी ओर फेंक दिया। वह खोरिया उसकी मोटरसाइकिल के पिछले चक्के पर जा लगा। उस युवती ने मोटरसाइकिल को ठिठकाया भर था और उन्हें देखती हुई ऐसे निकल गई मानो उसे इस सब की आदत हो ली है।
इस तत्क्षण प्रतिक्रिया से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उन युवकों का मर्द संस्कार युवती को मोटरसाइकिल चलाते देख कितना आहत हुआ होगा-पाठक जानते ही हैं कि मोटरसाइकिल को मर्दों की सवारी मान लिया गया है। अधिकांश मर्दों के संस्कार ऐसे ही महसूस किए जा सकते हैं, अंतर इतना ही है कि कुछ बाहरी प्रतिक्रिया दे बैठते हैं। और शेष मर्द अधिकांश में से मानसिक प्रतिक्रिया देने से कम ही चूकते हैं।
स्त्री के साथ ऐसे व्यवहार तब तक नहीं रुकेंगे जब तक पुरुष उन्हें बराबर की हैसियत का मानने लगें। उम्मीद की जानी चाहिए कि चंद पीढिय़ों के बाद की स्त्रियां बराबरी का दर्जा हासिल कर लेंगी।

13 फरवरी, 2015

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