Saturday, February 14, 2015

आसाराम मामला और गवाहों की गत

धर्मगुरु बने प्रवचनकार आसाराम नाबालिग के यौन शोषण मामले में सत्रह महीनों से न्यायिक हिरासत में है। पाठकों को पता है कि दुष्कर्म के ही अन्य मामलों में उनके पुत्र नारायण भी जेल में हैं-बाप, बेटों के अरबों के साम्राज्य और लाखों चेलों के टोले को फिलहाल कोई सम्भालने वाला नहीं है। इनमें से जिनका विवेक सक्रिय है उनमें से कुछ ने किनारा कर लिया और कुछ तटस्थ हो लिए हैं। कहा जाता है कि श्रद्धा केवल तर्कातीत होती है बल्कि अपने चरम पर अंधी भी हो जाती है। ऐसा ही कुछ संभवत: आसाराम के भक्तों के साथ भी है। जब से आसाराम और उनके पुत्र पर घिनौने आरोप लगे हैं तब से उनके अंध-भक्त न्याय व्यवस्था को जब-तब चुनौती देते रहे हैं। कहा जा रहा है कि इसके लिए स्वयं आसाराम और उनके अंतरंग अपने चेलों का भावात्मक शोषण करने से भी नहीं चूक रहे! आसाराम भले ही अपने प्रवचनों में अच्छी-अच्छी बातें कहते रहे हों-उनके कुकर्म साबित होते हैं तो उन्हें सजा मिलनी चाहिए। उन्हें इस बिना पर नहीं छोड़ा जा सकता कि उनमें लाखों की आस्था है!
इन पिता-पुत्र के खिलाफ सितम्बर, 2013 के बाद से अनेक पीडि़ताओं और राजदारों ने मुंह खोला है। जब से पीडि़ता-किशोरी ने अपने साथ घटित को पुलिस में दर्ज कराया तब से ही आसारामनिष्ठों ने उसे और उसके परिजनों को हर तरह से प्रभावित करने का अभियान-सा चला रखा है। हो सकता है पीडि़ता और उसके परिजन आरोप साबित नहीं कर पाएं और आसाराम-नारायण बरी होकर बाहर जाएं। लेकिन इसके लिए जरूरी है न्यायिक प्रक्रिया को अनुकूलता मिले। यह जिम्मेदारी केवल शासन-प्रशासन, न्यायपालिका और पुलिस महकमे की है बल्कि समाज की भी है। आसाराम और उनके पुत्र यदि किन्हीं कुकर्मों में सम्मिलित रहे हैं तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए। अन्यथा राजिया के हवाले से जो कहा गया कि 'ज्यांका पड़्या सभाव जासी जीव सूं' की पुष्टि ये पिता-पुत्र बाहर आकर किए बिना नहीं रहेंगे।
यह केवल कुयोग मात्र नहीं है कि इन सत्रह महीनों में इन पिता-पुत्रों पर चल रहे मामलों के दो अहम गवाह उनके पूर्व सेवादार अमृत प्रजापति और पूर्व रसोइए अखिल गुप्ता की हत्याएं हो चुकी हैं और तीसरे अहम गवाह एक और पूर्व सेवादार राहुल सचान पर कल जोधपुर न्यायालय में चाकुओं से ताबड़तोड़ हमला किया गया है। यह अकारण नहीं है कि दोनों हत्याओं के आरोपी और कल का हमलावर आसाराम में आस्था रखने वाले हैं।
भारतीय न्याय व्यवस्था वैसे भी अपनी लेट लतीफी के कारण बदनाम है और इस देरी के चलते गवाह को पलटवाने की करतूतें आम हैं। लेकिन आसाराम का मामला लाखों आस्थाओं से भी जुड़ा है। अत: न्यायालय और पुलिस सहित जांच एजेंसियों की जिम्मेदारी बनती है कि इस प्रक्रिया में अनावश्यक देरी नहीं हो। अन्यथा बड़े लोगों को कठघरे में खड़ा करने में लोग झिझकेंगे। वैसे भी समाज में यह धारणा पुष्ट होती जा रही है कि 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' और यदि ये पिता-पुत्र दोषी होने के बावजूद ढील के चलते दोषी साबित नहीं हो पाए तो समाज में तथाकथित 'आसारामों और नारायणों' की कमी नहीं है। हो सकता है अगली पीडि़ता होने का नम्बर किसी की भी बहू-बेटी और बहिन का सकता है।
आसाराम भक्तों से उम्मीद की जाती है कि जांच और न्यायिक एजेन्सियों को पूरी अनुकूलता से कार्य करने की गुंजाइश छोड़ें और यह मन से निकाल दें कि वे उनके बापू पिता-पुत्र को गलत फंसा देंगे। वैसे भी यह मामला हाइ-प्रोफाइल है और अब तो केवल राजस्थान में बल्कि केन्द्र में भी वे लोग काबिज हैं जिनकी अतिरिक्त सहानुभूति इन पिता-पुत्र के साथ रही है। लेकिन यह किसी भी तरह से जायज नहीं होगा कि ये दोनों दोषी हों भी तो अपने प्रभाव, प्रलोभनों और दबंगई से बरी हो जाएं। तब तो ऐसे लोगों के ताप से कोई बच ही नहीं पायेगा।
आसाराम के भक्तगण यह क्यों भूल जाते हैं कि जिन-जिन ने भी इन बाप-बेटे पर दुष्कर्म के आरोप लगाए, वे सभी आपके गुरु भाई-बहिन ही रहे हैं!

14 फरवरी, 2015

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