Monday, January 19, 2015

दिल्ली चुनाव और बेदी, माकन, केजरीवाल

दिल्ली में विधानसभा चुनाव की रंगत से भाजपा सहमी हुई लगती है। कांग्रेस के लिए इस चुनाव में खोने को कुछ है नहीं। इसलिए वह चुनाव में इतमीनान के साथ उतरी है। अजय माकन का चेहरा आगे कर कांग्रेस केवल मतदाताओं को अलग तरह का सन्देश देने की कोशिश में है बल्कि उसने अपने कुछ दिग्गजों को दावं पर लगाने से भी परहेज नहीं किया।  महाबल मिश्र और किरण वालिया जैसे ऐसे ही नाम हैं। अजय माकन कांग्रेसी लीक से थोड़ी भिन्न राजनीति करते रहे हैं और वे व्यवस्था के सुधारे में विश्वास करने वाले माने जाते हैं। पाठकों को याद होगा कि जब वे खेलमंत्री थे तो उन्हें उनकी उस फिराक के कारण बदल दिया जिसमें वे ऐसा अध्यादेश लाकर सभी तरह के खेलसंघ राजनेताओं की जकड़बंदियों से मुक्त करना चाह रहे थे। बीते बारह-तेरह महीनों में दिल्ली के मतदाताओं की मन:स्थिति में इतना बदलाव तो मान सकते हैं कि कांग्रेस पिछले आठ के आंकड़े से आगे बढ़ेगी। अगर वह दिल्ली में भी नहीं बढ़ती है तो मान लेना चाहिए कि उसके काफी बुरे दिन अभी शेष हैं।
केन्द्र में मोदी राज के सात महीने और दिल्ली में उसके नाकारा और बदनाम नेताओं की फौज ने भाजपा के आत्मविश्वास को डांवांडोल कर रखा है, जिसे पुन: बटोरने के लिए मोदी-शाह माइंड वह सब करने को तैयार हैं जिससे पार्टी विधानसभा में पैंतीस का आंकड़ा छू सके।
तुरुप के रूप में उन किरण बेदी को घेरा गया जो हाल तक कांग्रेस और भाजपा दोनों को एक डोळ की मानती रही-यहां तक कि मोदी को गुजरात दंगों पर सार्वजनिक तौर पर भुंडाती भी रही हैं। एक धारणा प्रचलित और लगभग स्थापित है कि कोई व्यक्ति किसी प्रलोभन से भी ताबे नहीं आए तो उसे मान देना और उसकी प्रशंसा करनी शुरू कर देनी चाहिए। मामला लगभग किरण बेदी के मामले में यह फिट होना शुरू हो गया। यह युक्ति बड़े-बड़े अडिगों में भी कारगर देखी गई जबकि किरण बेदी उतनी अडिग भी नहीं देखी गई अन्यथा अपनी बेटी के मेडिकल में दाखिले के लिए झूठे मूल-निवास प्रमाण पत्र का उपयोग वे नहीं करती। बेदी की ऐसी डगमगाहटों से वाकिफ मोदी एण्ड शाह एसोसिएट ने मुलाकात का पैगाम भेजा। बेदी सात रेसकोर्स पहुंच गईं-लगता है मोदी और शाह ने बेदी के ताळवे में मुख्यमंत्री पद का गुड़ भी चिपका दिया है।
हालांकि पार्टी ने किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रचारित नहीं किया लेकिन बेदी के हाव-भाव, बातचीत के तरीके और घोषणाओं से लगता है ताळवे में चिपके गुड़ का वह रस लेने लगी हैं। नौसिखियेपन में घाघपन नहीं देखा जाता इसकी पुष्टि बेदी के पिछले तीन-चार दिनों के सार्वजनिक प्रदर्शन से हो रही है। दिल्ली की जनता बेदी को किस रूप में लेगी इसकी घोषणा करना जल्दबाजी होगी। लेकिन यह तय है कि किरण बेदी के चुनावी मैदान में आने से आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल की मुश्किलें बढ़ेंगी। बेदी यदि नहीं आती तो लग रहा था कि आम आदमी पार्टी कम से कम अपनी पूर्वस्थिति को बनाए रखने में तो सफल हो लेगी। अब दारमदार ऊहापोह वाले मतदाताओं पर गया है कि वह केजरीवाल को मौका दें या बेदी को आजमाएं। बेदी को लपकने की कवायद से यह तो जाहिर हो ही गया कि दिल्ली में मोदी तिलिस्म आठ महीने पहले वाला नहीं रहा।
कांग्रेस का तो नहीं पता लेकिन भिन्न राजनीति की बात के आधार पर राजनीति करने का दावा करने वाले अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी का भविष्य दिल्ली का यह चुनाव तय कर देगा। अन्ना आन्दोलन के समय 'विनायक' ने एक से अधिक बार आगाह किया था कि उनके आन्दोलन की असफलता बदलाव की उम्मीदों को एक बारगी कुन्द कर देगी, वही होता लग रहा है। लगता है देश कांग्रेस और भाजपा को बारी-बारी से अभी कई वर्ष और भुगतने की मजबूरी को ही हासिल करेगा।

19 जनवरी, 2015

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