राजस्थान में पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव चल रहे हैं। खबरिया चैनलों और अखबारों में इस व्यवस्था से सम्बन्धित खबरें, पड़ताल और आंकड़ों के आधार पर रिपोर्टें आना स्वाभाविक है। भास्कर में आज एक पड़ताल छपी है जिसमें बताया गया है कि आरक्षित वर्गों के उम्मीदवार आरक्षित सीटों से भी ज्यादा सीटें जीतते आ रहे हैं। इस रिपोर्ट में आंकड़े केवल अन्य पिछड़े वर्ग से सम्बन्धित ही दिए गए हैं जबकि शुरुआत में यह भी बताया गया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार भी अपने वर्ग के लिए आरक्षित सीटों से ज्यादा पर जीत हासिल कर रहे हैं। ओबीसी की ही तरह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े भी इस पड़ताल में दे दिए जाते तो कहे की पुष्टि हो जाती। हालांकि लगता नहीं है कि अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के उम्मीदवार आरक्षित सीटों से ज्यादा पर जीत दर्ज करने लगे हों। कहीं कोई अपवाद स्वरूप जीत गया है तो बात अलग है।
रही बात ओबीसी की तो ऐसी स्थिति राजस्थान में जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने के बाद से ही बनी है, अन्यथा राज के किसी भी रूप में अन्य पिछड़ा वर्ग की पर्याप्त भागीदारी कभी नहीं रही। भारतीय समाज की खासतौर से उत्तरी भारत में जैसी सामाजिक संरचना है उसमें आजादी के इन सड़सठ वर्षों में कम-से-कम मूल पिछड़ों की भागीदारी ओबीसी आरक्षण के बावजूद पर्याप्त नहीं बन पायी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की भागीदारी भी सुनिश्चित इसलिए हो पायी कि इन्हें आजादी बाद से आरक्षण हासिल हो गया था। नहीं तो राज में इनकी भागीदारी भी ज्यादा बदतर होती।
पंचायतीराज में ओबीसी की भागीदारी को लेकर भास्कर यदि थोड़ा विस्तार से देता तो पाठक भ्रमित नहीं होता। इस रिपोर्ट से तो लग रहा है कि राजस्थान का अन्य पिछड़ा वर्ग कम-से-कम पंचायतराज व्यवस्था में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है।
जबकि मामला अभी तक उलट ही है। भास्कर में दिये आंकड़े जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने के बाद के हैं। जबकि राजस्थान में 1959 से जब से इन ग्रामीण सरकारों का गठन होने लगा तब से ही पंचायत-राज में बिना किसी आरक्षण के ही जाट समुदाय अच्छी खासी सीटों पर जीत दर्ज करता आ रहा है। क्योंकि एक तो पूर्वी राजस्थान में आजादी से पहले से ही कई रियासतों में इस समुदाय का शासन था यानी आज की भाषा में बात करें तो यह समुदाय भारत के इस भू-भाग में एक पावर कास्ट रहा है। दूसरा शेष राजस्थान के भी ज्यादातर क्षेत्रों में इस समुदाय की स्थिति हमेशा प्रभावी रही है। इसीलिए इसे आरक्षण मिलने से पहले भी वह न केवल पंचायती राज संस्थाओं में बल्कि विधानसभा और लोकसभा तक में इस समुदाय की नुमाइंदगी हमेशा से ही अच्छी खासी रही है।
भास्कर की इसी रिपोर्ट में चौपड़ा समिति के सदस्य योगेश अटल का वक्तव्य भी भ्रमित करने वाला है। हालांकि राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति इन्द्रसेन इसरानी का इसी पड़ताल में दिया गया वक्तव्य इन आंकड़ों के विसंगत होने के कारणों की ओर संकेत जरूर करता है जिसमें उन्होंने कहा है कि 'अब पिछड़े वर्गों में विभाजन करना पड़ेगा। इस खामी को दूर नहीं किया गया तो असली पिछड़ा वर्ग आगे नहीं आ पाएगा'।
दरअसल आजादी बाद से ही सभी तरह के आरक्षणों में रही कमियों को दूर करने की कवायद नहीं होने दी गई, जिसके कारण समाज में आरक्षण व्यवस्था के वो परिणाम हासिल नहीं हुए, जो होने चाहिए थे। राजनेताओं और आरक्षण के लाभान्वितों की भी ऐसी नीयत कभी नहीं देखी गयी। उलटा हो यह रहा है कि सोचे-समझे तरीके से अब यह प्रचारित किया जाने लगा है कि आरक्षण की व्यवस्था इसके मूल उद्देश्य समतामूलक समाज के ही खिलाफ है। जबकि ऐसा आरक्षण व्यवस्था की विसंगतियों के कारण है न कि आरक्षण व्यवस्था के कारण। बिना आरक्षण व्यवस्था फिलहाल समतामूलक समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
20 जनवरी, 2015
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