Tuesday, November 4, 2014

अनाड़ी न्यायिक फैसला

दिल्ली उच्च न्यायालय ने कल एक अजब फैसला दिया है। न्यायाधीश नंद्राजोग और न्यायाधीश मुक्ता गुप्ता ने अपने एक फैसले से निचली अदालत के उस फैसले को पलट दिया जिसमें एक दुष्कर्म के अपराधी को दस वर्ष की सजा से दंडित किया था। इन न्यायाधीशों ने निचली अदालत से सजा पाए आरोपी को बरी ही कर दिया। उनका तर्क था कि इस मामले में महिला की उम्र पैंसठ से ऊपर है और वह रजोनिवृत्त हो चुकी है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसी स्त्री के साथ बनाए गए संबंध को उग्र तो कहा जा सकता है लेकिन उसे जबरन नहीं कहा जा सकता। इस तरह का फैसला देने वाले न्यायाधीशों में से एक स्त्री है। चूंकि स्त्री है केवल इसलिए इस फैसले को आश्चर्यजनक नहीं कह सकते। क्योंकि, अधिकांश भारतीय स्त्रियां पुरुष मानसिकता से अनुकूलित होती हैं, उक्त महिला न्यायाधीश भी इसी भारतीय समाज का हिस्सा है। इसलिए स्त्री से स्त्री के मामले में पुरुषों से कुछ अलग या वास्तविक प्रतिक्रिया की उम्मीद सामान्यत: नहीं की जानी चाहिए।
इस फैसले की प्रतिक्रिया के लिए लिंगाधार को दरकिनार करते हुए न्यायिक अवधारणाओं पर ही बात करें तो उचित होगा। सामान्यत: जज साक्ष्यों, तथ्यों, वकीलों के तर्कों और मामले से संबंधित पूर्व अनुभवों-उदाहरणों को कानून की कसौटी पर कस कर फैसला देते हैं। दोनों पक्षों के वकीलों ने कुछ भी कहा हो, पीडि़ता के वकील के पास विशेष कारणों से कहने को कुछ रहा ही हो, बावजूद इसके इस तरह का फैसला देना केवल अनाड़ीपन है, बल्कि इस फैसले के बाद रजोनिवृत्त स्त्रियों के लिए जोखिम भी बढ़ाना है। सामान्यत: यह मान लिया जाता है कि रजोनिवृत्त या गर्भाशय-विहीनदोनों ही स्थितियों में स्त्रियां काम आनन्द से मुक्त हो जाती हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है। ऐसा अपवाद स्वरूप भले ही हो लेकिन ऐसा होता नहीं है। जीव विज्ञान के आधार पर भी विचारें तो स्त्रियां इस अवस्था में भी सामान्य स्त्रियों की भांति काम-आनन्द के योग्य होती हैं। न्यायाधीश ऐसे अनुभूत और आत्मकथात्मक साहित्य का अध्ययन करते तो वे समझ सकते थे कि स्थान, परिस्थिति और साथी अनुकूल हो तो ऐसी स्त्रियों ने इस क्रिया के आनन्द से अपने को पुष्ट पाया है। अपवाद स्वरूप ही सही ऐसी अनुभूतियां पिचहत्तर पार की स्त्रियों की भी मिलती हैं। यदि ऐसा है तो जब स्त्री की अनिच्छा और प्रतिकूल मानसिकता में अनुकूल पुरुष भी सम्बन्ध बनाने की चेष्टा करता है तब भी वह जबरन या दुष्कर्म ही कहलाएगा। यह बात इतर है कि वह अनुकूल पुरुष को सामान्यत: माफ ही करती है और मामला भारतीय दंड विधान की धारा 376 तक नहीं पहुंचता। लेकिन यदि कोई प्रतिकूल व्यक्ति किसी भी उम्र की स्त्री के साथ ऐसा करता है तो उसे बलात्संग की इस धारा से मुक्त नहीं किया जा सकता। भारतीय दंड विधान तो पशुओं के साथ संबंध बनाने को भी दंडनीय मानता है, ऐसे में उक्त दोनों जजों द्वारा दुष्कर्म के मामले को रजोनिवृत्ति से जोडऩा केवल हास्यास्पद है बल्कि यह स्त्री-अस्मिता की घोर नजरअंदाजी भी है।
उम्मीद की जाती कि ऐसे अनाड़ी फैसले को उच्चतम न्यायालय में कायम नहीं रखा जायेगा लेकिन ऐसी नौबत तो तब आयेगी जब पीडि़ता इस पहुंच के योग्य होगी या रहेगी। यदि इस फैसले को चुनौती नहीं दी जाती और यही फैसला नज़ीर बनता है तो ऐसे कुत्सित मानसिकता के लिए यह उत्प्रेरक का काम करेगा। होना तो यह चाहिए कि उच्चतम न्यायालय स्वयं इस फैसले का तुरंत संज्ञान ले और केवल ऐसे फैसले के पीछे की मानसिकता को टटोलें बल्कि त्वरित सुनवाई कर केवल स्त्री की ही नहीं मानवीय अस्मिता के आधार पर फैसला दें।

4 अक्टूबर, 2014

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