Saturday, November 29, 2014

धोक के साइड इफेक्ट

शहर के लिए चुने गए महापौर नारायण चौपड़ा और उपमहापौर अशोक आचार्य अपने निर्वाचन के बाद से धोक में व्यस्त हैं। नारायण चौपड़ा चुने जाने के तुरंत बाद अपने इष्ट आचार्य तुलसी की समाधि स्थल पहुंचे और धोक लगाई, बाद इसके उम्मीद थी कि वह अपने आम-अवाम की धोक खाएंगे लेकिन उन्होंने भाजपा सुप्रीमों वसुन्धरा राजे के धोक लगाने जाना ज्यादा जरूरी समझा। लगभग तीन सौ किलोमीटर का सफर तय कर जयपुर पहुंचे और उन्होंने अपनी 'जात' पूरी की। वहीं दूसरे दिन निर्विरोध उपमहापौर चुने गये अशोक आचार्य को अनायास ही बीच शहर से गुजर रही रेल लाइनों की धोक खानी पड़ी, हुआ यह कि जब वह निर्वासित होकर घर की ओर लौट रहे थे तभी 'प्रॉब्लम ऑफ थ्री डिकेड्स' कोटगेट और सांखला रेल फाटक बन्द मिले, कहते हैं दूसरी ओर खड़ी अपनी स्वागत सेना की बेताबी उनसे देखी नहीं गई और अपने वाहन से उतरे और क्रौसिंग बेरियर के नीचे से निकलने के लिए आगे की ओर इस तरह झुके, मानो रेल लाइनों को धोक दे रहे हों। सावचेत होते तो अपने छरछरे बदन के चलते वे पीछे की ओर झुककर भी फाटक से निकल सकते थे, लगता है उम्मीद और पात्रता से ज्यादा मिले के चलते वे सावचेत नहीं रह पाए। वैसे लोकतंत्र की 'खूबी' यही है कि राज अधिकांशत: अपात्रों के ही हाथ लगता है।
इस अनचाही धोक के बाद से उपमहापौर मन्दिरों, देवलों की धोक में लगे हैं तो महापौर हो सकता है आचार्य महाश्रमण की धोक के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक हो आए। धोक और आस्था निहायत व्यक्तिगत मसला है, इनसे किसी अन्य की आस्था जब तक विचलित हो तब तक चुनौती नहीं दी जानी चाहिए लेकिन, कुछ अति उत्साही लोकतंत्र प्रेमी मित्र स्थानीय निकायों के सभा भवनों से लेकर विधानसभा भवनों और संसद भवनों को लोकतंत्र का मन्दिर कहने से गुरेज नहीं करते सो यह आस्था का मामला उनका भी हो गया। ऐसे इन मन्दिरों के इन पुजारियों यथा महापौर, उपमहापौर जिलाप्रमुख, उप जिलाप्रमुख और सरपंचों से लेकर प्रदेशों और देश के मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री तक से उम्मीद की जाती है वे सुचिता बनाये रखें। लेकिन ऐसी उम्मीदें आजादी बाद से धरी रह रही हैं। चुन कर पहुंचे ये जिम्मेदार लोकतंत्र के इन मन्दिरों से लोकतंत्र को ही मन्दिर बदर करके खुद काबिज हो लेते हैं। अपने शहर के पिछले महापौर भवानीशंकर शर्मा इसके नायाब उदाहरण है। भानीभाई ने बजाय लोकतंत्र के पुजारी बनने के उन्होंने खुद अपने को ही पांच साल थरपे रखा और पुजवाने के लिए पुजारियों की छोटी-मोटी टीम को ही पोखते रहे।
हुआ यह कि जिस पार्टी के माध्यम से वे इस मुकाम पर पहुंचे, शहर से उसका ही सूपड़ा साफ हो गया। विनायक को इसे दोहराने में कोई संकोच नहीं है कि महापौर भानीभाई और उनके 'सैकंड हाफ' कांग्रेस राज में न्यास अध्यक्ष रहे मकसूद अहमद बजाय अपने को पुजवाने में नहीं लगकर असल जिम्मेदारियों को निभाते तो उनकी पार्टी की कम से कम यह गत तो नहीं होती। मकसूद अहमद ने तो कल्ला बंधुओं के यहां सजदा करने की नियमित ड्यूटी अलग पोळ रखी थी, ऐसे में आम-अवाम को अपनी जरूरतों और सहूलियतों के लिए पांच साल मुंह ताकते ही गुजारने पड़े। निगम के नये बोर्ड और जिस तरह से महापौर-उपमहापौर चुने गये हैं उनमें पिछली सभी गतों की पूरी आशंकाएं हैं। आजादी के इन सड़सठ वर्षों में बावजूद ऐसी चेतावनियों के देश की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का बेड़ा गर्क होता ही रहा है। इसलिए कुछ भी उम्मीदे पालना निराशाओं को न्योतना हैं। लेकिन क्या किया जाय-'ज्यांका पड़्या स्वभाव जासी जीव सूं'

29 नवम्बर, 2014

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