'अधिवक्ताओं, पुलिस के बाद अब पत्रकार प्रजाति भी इतनी बदनाम हो गई है कि आम आदमी किराए पर भी इन्हें आसरा देने को तैयार नहीं...आपबीती बता रहा हूं 'भाइयो! 3 बीएचके मकान के लिए भटक रहा हूं। कई जगह फोन पर हां सुनने को मिली पर पेशे (पत्रकार होने) तक बात पहुंचती और रेडीमेड बहाने के साथ वो 'हां' ना में तबदील हो जाती। कभी मिशन रहा ये पेशा आज इस हालात में पहुंच गया। पेशे की इस हालत का जिम्मेदार पाकिस्तान भी नहीं। फिर कौन!!! '
पत्रकार मित्र लक्ष्मण राघव ने यह व्यथा रात 11.30 बजे फेसबुक पर पोस्ट की। संभवत: दिन में उनके मन में जब इस व्यथा की बुनाई चल रही थी, लगभग उसी समय पड़ौसी प्रदेश हरियाणा, हिसार के बरवाला गांव के सतलोक आश्रम से पांच सौ मीटर दूर इसी पत्रकारीय पेशे के लोगों को पुलिस जमकर जरका रही थी। मीडियाकर्मियों का कहना है कि धर्मगुरु रामपाल की गिरफ्तारी के लिए अंजाम दिए जा रहे अभियान को कवर करने की पहले तो इजाजत ही नहीं दी। फिर दी तो पुलिस के बताये नीयत स्थान से वे घटनाक्रम को कवर कर रहे थे तभी अचानक पुलिस ने रामपाल के अनुयायियों के साथ पत्रकारों को भी लब्बर-धक्के ले लिया और न केवल कैमरे-माइक तोड़े-छीने बल्कि मार-मार कर कई पत्रकारों की हड्डियां भी तोड़ डाली।
हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और पिटने वाले पेशेवर पत्रकार ऐसे चैनलों के भी हैं जो पिछले कई महीनों से भाजपा और नरेन्द्र मोदी के लगभग भोंपू बने हुए हैं। कहते हैंं पुलिस की लाठी और प्रकृति की मार दुभांत नहीं करती, जो इन दोनों की बीड़ में आ गया, वह भुगतता ही है। वैसे भी भोंपू बनना तय तथाकथित श्रमजीवी पत्रकार तो करते नहीं, उनके मालिक ही करते हैं, जो अब लगभग कारपोरेट हाउस चलाने वाले ही रह गये हैं। पब्लिक में हाथ चौड़े कर चलने वाले इन पत्रकारों की हैसियत बड़े चौपहिया के नीचे आए पिल्ले जैसी भी नहीं होती, क्योंकि मीडिया हाउसों के मालिक लोग ऐसे समय में संवेदना प्रकट करने जितनी उकत भी नहीं दिखाते।
अखबार है तो संस्करण बढ़ाने की घुड़दौड़ और खबरिया चैनल हैं तो देश के ठीक-ठाक स्थानों पर अपना प्रतिनिधि दिखाने की प्रतिस्पर्धा से इस पत्रकारीय पेशे में ऐसे लोगों की आमदरफ्त बढ़ गई, जिन्हें केवल 'जॉब' चाहिए होता है। पत्रकारिता क्या है, भाषा और वर्तनी क्या है, विचार और तर्क की गति और गंतव्य क्या है और पत्रकारीय निष्ठा की भी कोई वकत होती है या नहीं-इन सब को जानना-समझना जरूरी नहीं मानने वाले लोगों की भरमार वाले इस पेशे की गत यही होनी थी। ऐसे में लक्ष्मण राघव जैसे पत्रकार व्यथित होते हैं और बरवाला में जरकीजते हैं। ऐसा नहीं है कि इस पेशे में हमेशा से ही सभी खरे रहे हैं लेकिन तब के इक्के-दुक्के अलग दिखते थे लेकिन अब तो गिनती ही उलट गई है।
बल पड़ते ही पत्रकारों की इस थोथी हेकड़ी के बट निकालने की पुलिस की दबी मंशा कल बरवाला, हिसार में चौड़े आई वहीं आम लोगों में ऐसे लोगों से बच के रहने की धारणा का शिकार लक्ष्मण राघव हो रहे हैं।
बट्टे खाते जा रहे समर्थ समाज का हिस्सा बन चुके इस पत्रकारीय पेशे की प्रतिष्ठा कितनी बची है, उक्त दो घटनाओं से समझा जा सकता है। पत्रकारीय पेशे के कायाकल्प की आकांक्षा भले ही न पालें लेकिन अपने आपे को इस मौके पत्रकारों को जरूर टटोलना चाहिए।
19 नवम्बर, 2014
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