Friday, November 14, 2014

नेहरू का स्मरण

देश के पहले प्रधानमंत्री और आजादी के आन्दोलन में गांधी के बाद सर्वाधिक स्वीकार्य जननायक जवाहरलाल नेहरू की आज एक सौ पचीसवीं जयन्ती है। नेहरू की हैसियत दुनिया की प्रमुख हस्तियों में मानी जाती रही लेकिन उनका यह सवा सौवां वर्ष कांग्रेस और भाजपा की खींचाताणी की भेंट चढ़ता लगता है। दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावितों के विषवमन के सर्वाधिक शिकार गांधी के बाद नेहरू ही रहे हैं। लेकिन उन्हीं में से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने अचम्भित करते हुए गांधी के बाद नेहरू को भी मान देने की कवायद शुरू कर दी। मोदी की इस रणनीति से कांग्रेस लगभग सकपकाई हुई है और इसके चलते लगता है उससे-अपना विवेक भी छूटा जा रहा है। मोदी देश से बाहर हैं सो आज नेहरू की समाधि शांतिवन जाने जाने की ऊहापोह से भी बच गये ओर सरकार की ओर से कुछ आयोजन करके अपने उदार मुखौटे का प्रदर्शन भी कर लिया। लेकिन नाबालिग हाथों में कांग्रेस ने इस अवसर के अपने आयोजनों में देश-दुनिया की कई हस्तियों को तो निमंत्रित कर दिया लेकिन देश के प्रधानमंत्री के साथ ऐसी औपचारिकता का निर्वहन भी नहीं किया। इससे उसके नेतृत्व के अपरिपक्व होने की पुष्टि ही होती है। पता नहीं कांग्रेस के इस सबसे बुरे समय में विवेकवान कांग्रेसियों का विवेक कुन्द हो गया या उनकी सुनी नहीं जा रही। हो सकता है ऐसे विवेकवान इन परिस्थितियों में 'पचड़े' से ही बचना चाह रहे हों। बुरे समय में विवेक खूंटी टंग जाता है, इस लोकधारणा की पुष्टि ही हो रही है।
खैर इस अवसर पर फेसबुक मित्र हितेन्द्र अनंत द्वारा 'नेहरू ' शब्द की व्युत्पत्ति पर कल पोस्ट की गई जानकारी को साझा करना जरूरी लगा।
'कश्मीर के एक पण्डित थे राज कौल। वे संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। ईसवी सन् 1716 के आसपास मुग़ल बादशाह फर्रूखसियार के कहने पर उनका परिवार दिल्ली गया। राज कौल को गुजारे के लिए एक जागीर दी गयी जो नहर के पास थी। इसलिए कौल परिवार को कौल-नेहरू और कालान्तर से नेहरू कहकर पुकारा जाने लगा। इसी परिवार के लक्ष्मीनारायण नेहरू कंपनी सरकार के मुग़ल दरबार में पहले वकील नियुक्त हुए। लक्ष्मीनारायण के पुत्र गंगाधर नेहरू 1857 के विद्रोह के कुछ समय पहले तक दिल्ली शहर के कोतवाल रहे।
1857 के विद्रोह और दिल्ली में हुई बाद की हिंसा ने नेहरू परिवार को भी तबाह कर दिया। यह परिवार आगे चलकर आगरा में बस गया। 1861 में गंगाधर की मृत्यु जब हुई, तब उनके पुत्र मोतीलाल गर्भस्थ थे। यह परिवार खेतड़ी राज्य में रहा। नन्दलाल नेहरू जो मोतीलाल से आयु में काफी बड़े थे, वे खेतड़ी राज्य के दीवान हुए। आगे चलकर नन्दलाल आगरा के अंग्रेज न्यायालय में चले गए। यह न्यायालय जब आगरा से इलाहाबाद स्थानांतरित हुआ तब नेहरू परिवार भी इलाहाबाद गया। इस परिवार में जन्म हुआ मोतीलाल के पुत्र जवाहर लाल का। '
इसके अलावा भी मित्र हितेन्द्र द्वारा जवाहरलाल नेहरू के सम्बन्ध में आज की गई एक और पोस्ट भी सन्तुलित और विचारणीय है-
'प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अनेक पहलू होते हैं। किसी देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाले और उसे वर्षों तक नेतृत्व प्रदान करने वाले राजनेता के जीवन में भी रहे होंगे। इस दुनिया में कौन है जो कहे उससे कभी कोई गलती नहीं हुई? गलतियों का हिसाब इतिहास ले ही लेता है। लेकिन देश की जनता केवल गलतियों को याद रखे और बाकी के विस्तृत-विराट योगदान को भुला दे, यह कृतघ्नता है। उनकी कश्मीर नीति और चीन युद्ध की विफलता पर उन पर प्रश्न किए जाते हैं और उचित है कि ऐसे प्रश्न किए जाएं। पर उनका इस नए गणतंत्र की स्वतंत्रता, स्थापना, अखण्डता और समृद्धि में बहुत बड़ा योगदान है। हम आपके कृतज्ञ हैं नेहरू जी कि आपका नेतृत्व हमें तब मिला जब इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी।
ध्यान दें-
नेहरू बड़े विचारक थे। वे उन चुनिंदा राजनेताओं में हैं जिन्होंने खूब लिखा, राजनीति से इतर भी। उनकी पुस्तकें 'भारत एक खोज '(ग्लिम्पसेस ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री) उनके अध्ययन के विस्तार को प्रदर्शित करती हैं।
हालांकि एक अमीर घराने से होने के कारण नेहरू ने विलासी जीवन जीया, लेकिन गांधीजी के संपर्क में आने के बाद उनकी जीवनशैली में व्यापक बदलाव आए और वे आजादी के जमीनी संघर्ष में शामिल हुए।
कांग्रेस की अगली पंक्ति के नेताओं में अकेले नेहरू थे जिनकी स्वतंत्रता के काफी पहले से ही विदेश नीति पर गहरी पकड़ थी।
स्वतन्त्र भारत के किसी भी प्रधानमंत्री को विश्व पटल पर वह सम्मान नहीं मिला जो नेहरू को प्राप्त था। जब विश्व शीत युद्ध की चपेट में था तब उनके नेतृत्व में भारत ने 'गुट निरपेक्ष आन्दोलन ' के गठन में महती भूमिका निभाकर विश्व राजनीति को प्रभावित किया।
आजादी के बाद नेहरू ने पुराने मतभेद भुलाते हुए देशहित में अनेक विरोधी पक्ष के विद्वानों को सरकार में शामिल किया। इनमें डॉ. अम्बेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी शामिल थे।
भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम, विज्ञान अनुसंधान के अनेक संस्थानों एवं परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम तथा आइआइटी और आइआइएम जैसे उच्च शिक्षा के संस्थान नेहरू ने शुरू करवाए।
आजादी के बाद देश को तेज गति से औद्योगीकरण की आवश्यकता थी। तब देश का निजी क्षेत्र इस अवस्था में नहीं था कि अकेले अपने हाथों यह कार्य कर सके। इसलिए नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उपक्रमों की स्थापना की। भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे अनेक बड़े कारखाने उन्हीं की देन हैं। नेहरू कारखानों को 'आधुनिक भारत के मंदिर' कहा करते थे। इस कथन की गहराई आज किसी और प्रकार के मंदिरों के नाम पर हो रही लड़ाइयों से समझिये। नेहरू भारत के उँगलियों पर गिने जा सकने वाले उन नेताओं में शीर्ष पर हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सर्वोच्च माना करते थे। वे नास्तिक थे। इस विषय पर गांधीजी के धार्मिक आग्रहों से उनकी सार्वजनिक असहमति थी।
नेहरू का समाजवाद के प्रति झुकाव था। लेकिन उन्होंने समय की मांग के अनुरूप मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना। यह भारत के तत्कालीन वातावरण के अनुकूल नीति थी।
आज बड़े बांधों की इस देश को आवश्यकता है या नहीं है यह विमर्श का बड़ा मुद्दा है। लेकिन आजादी के बाद सिंचाई के विस्तार के उद्देश्य से भाखड़ा नांगल और हीराकुंड जैसी अनेक बड़ी परियोजनाएं उनकी देन हैं।
आजादी और बंटवारे के बाद भारत सहित पाकिस्तान में साम्प्रदायिक घृणा का माहौल था। ऐसे में भारत में सत्ता नेहरू के हाथ में रही जिन्हें साम्प्रदायिकता से सख्त चिढ़ थी। यदि किसी धर्मविशेष की ओर झुकाव वाला कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता तब उस माहौल में भारत के अनेक टुकड़े हो सकते थे। लेकिन नेहरू के नेतृत्व में भारत का पूरा ध्यान विकास और निर्माण पर लगा रहा। जबकि पाकिस्तान जन्म के बाद से लेकर आज तक स्थायित्व का एक भी दौर नहीं देख पाया है और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। '

14 अक्टूबर, 2014देश के पहले प्रधानमंत्री और आजादी के आन्दोलन में गांधी के बाद सर्वाधिक स्वीकार्य जननायक जवाहरलाल नेहरू की आज एक सौ पचीसवीं जयन्ती है। नेहरू की हैसियत दुनिया की प्रमुख हस्तियों में मानी जाती रही लेकिन उनका यह सवा सौवां वर्ष कांग्रेस और भाजपा की खींचाताणी की भेंट चढ़ता लगता है। दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावितों के विषवमन के सर्वाधिक शिकार गांधी के बाद नेहरू ही रहे हैं। लेकिन उन्हीं में से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने अचम्भित करते हुए गांधी के बाद नेहरू को भी मान देने की कवायद शुरू कर दी। मोदी की इस रणनीति से कांग्रेस लगभग सकपकाई हुई है और इसके चलते लगता है उससे-अपना विवेक भी छूटा जा रहा है। मोदी देश से बाहर हैं सो आज नेहरू की समाधि शांतिवन जाने जाने की ऊहापोह से भी बच गये ओर सरकार की ओर से कुछ आयोजन करके अपने उदार मुखौटे का प्रदर्शन भी कर लिया। लेकिन नाबालिग हाथों में कांग्रेस ने इस अवसर के अपने आयोजनों में देश-दुनिया की कई हस्तियों को तो निमंत्रित कर दिया लेकिन देश के प्रधानमंत्री के साथ ऐसी औपचारिकता का निर्वहन भी नहीं किया। इससे उसके नेतृत्व के अपरिपक्व होने की पुष्टि ही होती है। पता नहीं कांग्रेस के इस सबसे बुरे समय में विवेकवान कांग्रेसियों का विवेक कुन्द हो गया या उनकी सुनी नहीं जा रही। हो सकता है ऐसे विवेकवान इन परिस्थितियों में 'पचड़े' से ही बचना चाह रहे हों। बुरे समय में विवेक खूंटी टंग जाता है, इस लोकधारणा की पुष्टि ही हो रही है।
खैर इस अवसर पर फेसबुक मित्र हितेन्द्र अनंत द्वारा 'नेहरू ' शब्द की व्युत्पत्ति पर कल पोस्ट की गई जानकारी को साझा करना जरूरी लगा।
'कश्मीर के एक पण्डित थे राज कौल। वे संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। ईसवी सन् 1716 के आसपास मुग़ल बादशाह फर्रूखसियार के कहने पर उनका परिवार दिल्ली गया। राज कौल को गुजारे के लिए एक जागीर दी गयी जो नहर के पास थी। इसलिए कौल परिवार को कौल-नेहरू और कालान्तर से नेहरू कहकर पुकारा जाने लगा। इसी परिवार के लक्ष्मीनारायण नेहरू कंपनी सरकार के मुग़ल दरबार में पहले वकील नियुक्त हुए। लक्ष्मीनारायण के पुत्र गंगाधर नेहरू 1857 के विद्रोह के कुछ समय पहले तक दिल्ली शहर के कोतवाल रहे।
1857 के विद्रोह और दिल्ली में हुई बाद की हिंसा ने नेहरू परिवार को भी तबाह कर दिया। यह परिवार आगे चलकर आगरा में बस गया। 1861 में गंगाधर की मृत्यु जब हुई, तब उनके पुत्र मोतीलाल गर्भस्थ थे। यह परिवार खेतड़ी राज्य में रहा। नन्दलाल नेहरू जो मोतीलाल से आयु में काफी बड़े थे, वे खेतड़ी राज्य के दीवान हुए। आगे चलकर नन्दलाल आगरा के अंग्रेज न्यायालय में चले गए। यह न्यायालय जब आगरा से इलाहाबाद स्थानांतरित हुआ तब नेहरू परिवार भी इलाहाबाद गया। इस परिवार में जन्म हुआ मोतीलाल के पुत्र जवाहर लाल का। '
इसके अलावा भी मित्र हितेन्द्र द्वारा जवाहरलाल नेहरू के सम्बन्ध में आज की गई एक और पोस्ट भी सन्तुलित और विचारणीय है-
'प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के अनेक पहलू होते हैं। किसी देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाले और उसे वर्षों तक नेतृत्व प्रदान करने वाले राजनेता के जीवन में भी रहे होंगे। इस दुनिया में कौन है जो कहे उससे कभी कोई गलती नहीं हुई? गलतियों का हिसाब इतिहास ले ही लेता है। लेकिन देश की जनता केवल गलतियों को याद रखे और बाकी के विस्तृत-विराट योगदान को भुला दे, यह कृतघ्नता है। उनकी कश्मीर नीति और चीन युद्ध की विफलता पर उन पर प्रश्न किए जाते हैं और उचित है कि ऐसे प्रश्न किए जाएं। पर उनका इस नए गणतंत्र की स्वतंत्रता, स्थापना, अखण्डता और समृद्धि में बहुत बड़ा योगदान है। हम आपके कृतज्ञ हैं नेहरू जी कि आपका नेतृत्व हमें तब मिला जब इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी।
ध्यान दें-
नेहरू बड़े विचारक थे। वे उन चुनिंदा राजनेताओं में हैं जिन्होंने खूब लिखा, राजनीति से इतर भी। उनकी पुस्तकें 'भारत एक खोज '(ग्लिम्पसेस ऑफ वल्र्ड हिस्ट्री) उनके अध्ययन के विस्तार को प्रदर्शित करती हैं।
हालांकि एक अमीर घराने से होने के कारण नेहरू ने विलासी जीवन जीया, लेकिन गांधीजी के संपर्क में आने के बाद उनकी जीवनशैली में व्यापक बदलाव आए और वे आजादी के जमीनी संघर्ष में शामिल हुए।
कांग्रेस की अगली पंक्ति के नेताओं में अकेले नेहरू थे जिनकी स्वतंत्रता के काफी पहले से ही विदेश नीति पर गहरी पकड़ थी।
स्वतन्त्र भारत के किसी भी प्रधानमंत्री को विश्व पटल पर वह सम्मान नहीं मिला जो नेहरू को प्राप्त था। जब विश्व शीत युद्ध की चपेट में था तब उनके नेतृत्व में भारत ने 'गुट निरपेक्ष आन्दोलन ' के गठन में महती भूमिका निभाकर विश्व राजनीति को प्रभावित किया।
आजादी के बाद नेहरू ने पुराने मतभेद भुलाते हुए देशहित में अनेक विरोधी पक्ष के विद्वानों को सरकार में शामिल किया। इनमें डॉ. अम्बेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी शामिल थे।
भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम, विज्ञान अनुसंधान के अनेक संस्थानों एवं परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम तथा आइआइटी और आइआइएम जैसे उच्च शिक्षा के संस्थान नेहरू ने शुरू करवाए।
आजादी के बाद देश को तेज गति से औद्योगीकरण की आवश्यकता थी। तब देश का निजी क्षेत्र इस अवस्था में नहीं था कि अकेले अपने हाथों यह कार्य कर सके। इसलिए नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े उपक्रमों की स्थापना की। भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे अनेक बड़े कारखाने उन्हीं की देन हैं। नेहरू कारखानों को 'आधुनिक भारत के मंदिर' कहा करते थे। इस कथन की गहराई आज किसी और प्रकार के मंदिरों के नाम पर हो रही लड़ाइयों से समझिये। नेहरू भारत के उँगलियों पर गिने जा सकने वाले उन नेताओं में शीर्ष पर हैं जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को सर्वोच्च माना करते थे। वे नास्तिक थे। इस विषय पर गांधीजी के धार्मिक आग्रहों से उनकी सार्वजनिक असहमति थी।
नेहरू का समाजवाद के प्रति झुकाव था। लेकिन उन्होंने समय की मांग के अनुरूप मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुना। यह भारत के तत्कालीन वातावरण के अनुकूल नीति थी।
आज बड़े बांधों की इस देश को आवश्यकता है या नहीं है यह विमर्श का बड़ा मुद्दा है। लेकिन आजादी के बाद सिंचाई के विस्तार के उद्देश्य से भाखड़ा नांगल और हीराकुंड जैसी अनेक बड़ी परियोजनाएं उनकी देन हैं।
आजादी और बंटवारे के बाद भारत सहित पाकिस्तान में साम्प्रदायिक घृणा का माहौल था। ऐसे में भारत में सत्ता नेहरू के हाथ में रही जिन्हें साम्प्रदायिकता से सख्त चिढ़ थी। यदि किसी धर्मविशेष की ओर झुकाव वाला कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बन जाता तब उस माहौल में भारत के अनेक टुकड़े हो सकते थे। लेकिन नेहरू के नेतृत्व में भारत का पूरा ध्यान विकास और निर्माण पर लगा रहा। जबकि पाकिस्तान जन्म के बाद से लेकर आज तक स्थायित्व का एक भी दौर नहीं देख पाया है और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। '
14 अक्टूबर, 2014

1 comment:

Anonymous said...

धन्यवाद दीप जी।
-हितेन्द्र अनंत