Wednesday, November 12, 2014

कोरी चतुराई के खेल में तबदील होती राजनीति

बीकानेर नगर निगम के चुनावों की रेलम-पेल इतनी पैचीदी होगी किसी छुटभैया-बड़ भैया नेता ने सोचा होगा। भाजपा तो भाजपा अधमरी कांग्रेस को भी टिकटार्थियों ने सागीड़ा जोर करवा दिया। भाजपा व्यापार प्रकोष्ठ के विष्णु पुरी ने पार्टी उम्मीदवारी मिलने की तकलीफ फेसबुक वाल पर कल कुछ यूं जाहिर की- हम समझे थे बात इतनी सी, सपने शीशे के.....दुनिया पत्थर की। पुरी की यह टीस संजीदगी लिए थी तो कुछ बड़ों की टीस में मा-बहिन तक को घसीट लिया गया।
निगम पार्षद ही क्यों विधायक, सांसद तक के रूप में जनप्रतिनिधि होने की कवायद नि:स्वार्थ नहीं रही। सीधे-सीधे बात करें तो अपने निजी हितों को साधने के ये अवसर भर रह गये हैं। निगम पार्षदी को तो अब सीधे-सीधे पार्षद पुराना है तो ठेकेदारी का नवीनीकरण और नया है तो ठेकेदारी का पंजीकरण ही कहा जाने लगा है। शहर में सभी जानते हैं कि तनख्वाहों के अलावा नगर निगम के पूरे बजट का आधा तो सीधे-सीधे कमीशनखोरी में ही जाता है। शेष रहे आधे का यदि पार्षद ठेकेदार हो तो फिर कहना ही क्या। अपवाद स्वरूप कुछ भले पार्षद भी होते हैं तो वह जरूर आधा-पड़दा अपने वार्ड में खर्च करवा लेते होंगे-लेकिन इसके लिए भी उन्हें चने नाकों से चबाने पड़ते हैं।
पिछले हफ्ते-दस दिन की टिकट बंटवारे की इस कशमकश का पटाक्षेप एक बारगी तो हो गया। जो निराश हुए उनमें से कुछ तो विष्णु पुरी की तरह शायरी करके गम गलत कर रहे हैं तो कुछ बाहें तान कर 'कारसेवा' का आह्वान कर 'रिलेक्स' हो रहे हैं। वैसे कार-सेवा शब्द की व्युत्पत्ति नि:स्वार्थ और परार्थ सेवा के लिए हुई थी लेकिन राजनीति में इस शब्द का प्रयोग शुद्ध स्वार्थ के लिए किया जाने लगा है।
कहते हैं शहर के दोनों विधायकों की इस टिकट बंटवारे में एक चली। उदाहरण के रूप में कहा गया कि पश्चिम के विधायक गोपाल जोशी अपने बेटे को टिकट नहीं दिलवा सके तो पूर्व की विधायक सिद्धीकुमारी के छोटे 'भाईसा'ओं में से कइयों को पार्टी ने टिकट की घास नहीं डाली। पता नहीं ये दोनों ही पार्टी के प्रति निष्ठा के बहाने पार्टी के लिए सक्रिय होंगे या बट-बटीज'कर बैठ जाएंगे। गोपाल जोशी का तो पता नहीं पर सिद्धीकुमारी को इस चुनाव से उदासीनता का बहाना मिल गया होगा। वैसे भी उन्हें अपनी 'रियाया' से लेना देना रहा ही कब है। यह 'रियाया' ही है कि वह 'बाइसा-बाइसा' करके अपनी गुलाम मानसिकता का नवीनीकरण करवाती रहती है।
कांग्रेस की जैसी भी गत है उसमें उसके पास अब खोने को बचा ही क्या है, इन चुनावों में वह कुछ भी हासिल करती है तो वह उसका सुधारा ही कहलायेगा। भाजपा की स्थितियां ज्यादा चिन्तनीय है। शहर के दोनों विधायकों की पावलियां खोटी निकली और जिन पूर्व शहर अध्यक्ष नन्दकिशोर सोलंकी की पावली इन विधायकों ने चलन से बाहर करवाई उन्हीं सोलंकी ने पावली सोलह आने में सही अपनी चतुराई से पांच आने में तो चला ही ली। इसीलिए कहते हैं कि राजनीति में स्थाई दुश्मन नहीं बनाने चाहिए। सिद्धीकुमारी तो राजनीति में नादान है, गोपाल जोशी को तो 'बीड़ी-बीड़ी' से हुए अपने हश्र को याद रखना था। मक्खन जोशी के परिजनों और रामकिशन आचार्य ने घुन्नी राजनीति से कुछ बड़ा हासिल भी किया हो पर वे बेरंग भी नहीं रहे। गोकुल जोशी को पार्षद उम्मीदवारी मिलना मंत्री पद से चूकने के बाद गोपाल जोशी के लिए कम झटका नहीं है!

12 नवम्बर, 2014

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