भारतीय आम-आवाम ठगा तो आजादी बाद से जाता रहा है, लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर जब से नरेन्द्र मोदी आएं हैं, तब यह खेल खुल्लम खुल्ला और बेधड़क शुरू हो गया है। कांग्रेस ने अपने सभी कबाड़े सहमते और लुके-छिपे किये, बीच में जो भी गैर कांग्रेसी सरकारें बनी उनकी कबाड़ेबाजी कांग्रेस की तर्ज पर ही चलती रही इसमें राजग की पिछली अटलबिहारी के नेतृत्व वाली सरकार भी शामिल है। आम-आवाम से विनायक का मानी जनसंख्या के उस अधिकांश हिस्से से है जिन्हें अधिकृत तौर पर गरीबी रेखा के ऊपर-नीचे के वर्ग के अलावा निम्न मध्यम वर्ग माना जाता है। लोकसभा के चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने जो भी वादे किए और सपने दिखाए उनमें से किसी के पूरे होने की उम्मीद करने को जल्दबाजी कहा जा सकता है, लेकिन इन वादों को पूरा करने का रास्ता वह तो हरगिज नहीं है, जिधर मोदी पगलिये कर रहे हैं बल्कि जो और जिस तरह के निर्णय सरकार करने लगी है उससे सब उलट ही होना है।
1992 से कांग्रेस राज में अपनाई गई आधुनिक अर्थव्यवस्था में गरीबी रेखा के ऊपर और नीचे वाले दोनों वर्गों के अलावा निम्न मध्यम वर्ग के लिए भी गुंजाइश खत्म मान ली गई थी और समय ने उसे साबित भी किया है। गए बीस वर्षों से जिस तरह से महंगाई बढ़ी है उसमें ऐसे वर्गों की जीवनचर्या लगातार मुश्किल होती जा रही है।
आम-आवाम की पहुंच के आवागमन का साधन एकमात्र रेल है, जिसकी सवारी गाडिय़ों से सफर करके यह वर्ग अपनी जरूरतें पूरी करता रहा है। ऐसे में रेल की सामान्य सुविधा ऐसी बना देना कि उसका उपयोग करना उनके बस में ही न रहे, कहां तक उचित है? रेलवे स्टेशनों से उन ठेला-गाड़ों को खत्म किया जा रहा है जिनसे सामान्यजन खान-पान सम्बन्धी जरूरत पूरी कर सकता है। अब सभी स्टेशनों पर जरूरत का खान-पान ब्रांडेड और वह भी इंटरनेट और फोन की बुकिंग से मिलेगा। तर्क यह कि इन गाड़े वालों की शिकायतें बहुत हैं। यदि ऐसा है तो इसके लिए नियुक्त निरीक्षक क्या कर रहे हैं और क्या गारन्टी है कि जिन बड़े लोगों को यह काम सौंप रहे हैं, वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे। बल्कि उनकी दरें इतनी ऊंची तय की जाएंगी कि केवल उच्च और मध्यम वर्ग ही उन तक पहुंच बना पायेगा। इस विशिष्ट वर्ग के लिए 'तत्काल टिकट सेवाÓ का आधा कोटा तो आरक्षित कर ही दिया गया। चौदह प्रतिशत किराया बढ़ाने का उलाहना तो इसलिए नहीं दिया जा सकता कि इतने वर्षों के बाद यह जरूरी हो गया था। लेकिन बाकी जो किया जा रहा है वह किस हिन्दुस्तान के लिए किया जा रहा है।
खुदरा व्यापार के केन्द्रीकरण की 'सफलता'
का आंकड़ा सामने आया है। ऑनलाइन व्यापार करने वाली कंपनियों फ्लिपकार्ट और स्नैपडील ने कल दस घण्टे में ही 1200 करोड़ की बिक्री की है। मान लेते हैं कि इन कम्पनियों से हजारों को रोजगार मिला होगा और यह भी कि सामान की डिलीवरी में कुरियर कम्पनियों के सैकड़ों को रोजगार मिल गया होगा। लेकिन करोड़ों का यह व्यापार छोटे व्यापारियों के माध्यम से होता तो इससे कई गुना अधिक परिवारों के पेट पलते। अलावा इसके इन बड़े घरानों की नौकरियां आसान भी नहीं, लुभाने के लिए पैकेज बड़े-बड़े दिखाते हैं लेकिन ये तेल भी पूरा निकालते हैं। यानी जितना देते हैं उससे ज्यादा का काम लेते हैं। श्रम सम्बन्धी नियम कायदों का वजूद धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के रोजगार लगभग खत्म कर दिए गये हैं। यह सब मोदी ने ही किया हो, मानना उचित नहीं होगा लेकिन मोदी ये सब बेधड़क होने दे रहे हैं, इसमें दो राय नहीं।
नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाना, सरकार बनते ही पर्यावरण मंत्रालय में वर्षों से अटकी फाइलों को झटके में हरी झण्डी देना, तथा 'मेक इन इण्डिया' का नारा देश के पर्यावरण और आम-आवाम की खर्च व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए पर्याप्त है। जिस महंगाई और भ्रष्टाचार को कम करने, कालाधन वापस लाने और चीन और पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर जो सरकार आई है, वैसा कुछ भी होता दीख नहीं रहा। इन सबसे ध्यान बंटाने के लिए प्रधानमंत्री कभी टीवी पर ठिठोली करते हैं तो कभी रेडियो पर प्रवचन देते हैं। गंगा सफाई और स्वच्छ भारत की नौटंकियों का प्रदर्शन अलग से हो ही रहा है। जनता मजबूर है-कुएं से निकल खाईं में और खाई से निकलकर कुएं में गिरने को।
7 अक्टूबर, 2014
1 comment:
आपके विचारों से सहमत हू। जब तक हर व्यकित ईमानदारी से जापानी की तरह देश भकत नहीं बनेगा तब तक अचछे दिन नहीं आने वाले। हम तो देख रहे है कि चौर उचकै मौज कर रहे है। ईमानदार लाईनहाजर:एपीआेष: हो रहे है।
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