विदेशों में जमा भारतीयों के कालेधन
को लेकर घमासान मचा है। अखबार हो या खबरियां चैनल, सोशल साइट्स हो या
पाटा गजट, सभी जगह की हथाई
में हाका इसी का हो रहा है। बारीक कातने वाले कुछ फेसबुकिए इसके नामकरण पर एतराज जताते कह रहे हैं कि 'कालाधन' जैसा
शब्द रंगभेद का पोषक है और यह काले लोगों का अपमान है, बात में दम भी
है, रंगभेद में गौरे, कालों का सदियों
से शोषण करते आए हैं, और आज
भी बहुत से काले हीन भावना से ग्रसित पाए जाते हैं तो गौरे हेकड़ी के। इस तरह का प्रश्न उठाने वालों का मानना है कि ऐसे धन को क्यों न अवैध धन ही कहा जाए, तर्क उनका वाजिब है। कालाधन, काली
करतूतें, काला मुंह, काला कानून, काला
पानी, काला बाजार, काली जबान, काली
सूची, काला जादू आदि जैसे शब्दों का काले रंग से संबंध इतना ही है कि इन सभी के अर्थ हेय या बूरे या गन्दे काम से है। काला संज्ञा का विशेषण में यह रूपान्तरण नकारात्मक इसलिए है कि काली चमड़ी की बड़ी आबादी को हेय और हीन माना जाता रहा है। रंगभेद विरोधियों का अवैध धन को काला कहे जाने का विरोध भी इसी कारण है।
इस जायज
आपत्ति के उल्लेख के बाद आज फिर वर्तमान के सर्वाधिक चर्चित प्रकरण अवैध धन के प्रचलित नाम कालेधन की बात कर लेते हैं। आजादी बाद का लोकतांत्रिक दौर धीरे-धीरे भ्रमित दौर में बदलता गया है। कांग्रेस हो या
कोई अन्य राजनीतिक पार्टियां या फिर चाहे राजनीति करने वाले निर्दलीय ही क्यों न हो, पिछले लम्बे अर्से से इनमें
से अधिकांश जनता को भ्रमित करके ही वोट हासिल करते रहे हैं, आम बोलचाल
की भाषा में बात करें तो इन नेताओं का मकसद इतना ही रहा है कि जनता को उल्लू बनाओ और अपना उल्लू सीधा करो। और जनता इतनी सीधी है कि वह केवल लगातार उल्लू बनती आ रही है बल्कि हर बार पहले से ज्यादा उल्लू बनाई भी जाती रही है। पिछले एक वर्ष में देश-प्रदेश में हुए चुनाव अभियानों का स्मरण
कर लें, वसुन्धरा और मोदी
ने जिन वादों या भरोसों के साथ सरकार बनाई है, उनमें से कोई
एक भी पूरा होता दीख रहा है क्या?
अब इस
कालेधन के पानी की मथाई ही समझ लो, अधिकृत या अनाधिकृत
सभी के दिए आंकड़ों में जमीन-आसमान का अन्तर
है। किसका सही और किसका टप्पा है कोई नहीं बता सकता। पिछले चार-पांच दिनों में उच्चतम न्यायालय की सक्रियता
से इस पर जो कोथिणा हो रहा है, वह सब
तो दस साल पुराना है। अप्रेल में कांग्रेस की सरकार ने और तीन दिन पहले भाजपा की सरकार ने जिन तीन नामों को उजागर किया, वह जिस
सूची से थे और जिस सूची को बन्द लिफाफे में कल उच्चतम न्यायालय में सुपुर्द किया है, वह सूची
तो उन भारतीय और अप्रवासी भारतीयों के नामों की है जिनका पैसा जर्मनी की बैंकों में जमा है और जिसकी सूची एचएसबीसी बैंक के ही कर्मचारी ने अनाधिकृत रूप से फ्रांस सरकार को 2006 में उपलब्ध करवा दी और फ्रांस सरकार ने भारत सरकार को। इस 2006 की सूची के अलावा इस कालेधन सम्बन्धी कोई रिकार्ड अधिकृत तौर पर भारत सरकार के पास है, इसकी सूचना नहीं है। स्विटजरलैंड की बैंकों
में क्या है, विदेशी बैंकों में जिस कालेधन के नाम
पर सबसे ज्यादा हाके हो रहे हैं, उसे इस आठ
साल पुरानी सूची को अद्र्ध प्रकाश में लाकर शेष सभी खातों पर ये सरकारें परदा तो नहीं डालना चाहती हैं। पिछले बारह वर्षों से चली आ रही इस सुगबुगाहट पर सरकार चाहे अटल की रही हो या मनमोहन की या फिर नरेन्द्र मोदी की, सभी की नीयत
असलियत उजागर करने की लगती ही नहीं है। जबकि मोदी ने तो चुनाव अभियान में बकायदा इस कालेधन को लौटा कर प्रत्येक भारतीय की तीन-तीन लाख की हिस्सेदारी
का प्रलोभन दिया था। मोदी की इस भारी चुनावी सफलता में इस प्रलोभन का कम योगदान नहीं था।
जनता यह समझने
की कोशिश क्यों नहीं कर रही है कि उसे केवल और केवल उल्लू बनाया जा रहा है। इन दिनों जो सूची चर्चा में है वह तो अनाधिकृत तौर पर एचएसबीसी के कर्मचारी ने 2006 में फ्रांस सरकार को उपलब्ध करवाई थी। पिछले बारह साल से चल रहे इन हाकों से क्या वे खाताधारी सचेत नहीं हो गये होंगे, जिनका अवैध धन स्विटजरलैंड
सहित यूरोप के कई देशों में जमा है। 2006 के बाद के ये आठ वर्ष बहुत कुछ इधर-उधर करने और बैंकों
से किसी को सूचित न करने की शर्त पर धन जमा करवाने के लिए पर्याप्त होते हैं। भ्रष्ट तरीकों और इसी कालेधन से चुनाव जीत कर सरकार बनाने और उसे चलाने वालों से कुछ उम्मीद करना आम-अवाम के भोलेपन
की हद है। भारतीय आम-अवाम इस भोलेपन
को जब तक नहीं छोड़ेगा तब तक उसे इसी तरह भ्रमित किया जाता रहेगा और उसे उल्लू बना कर ये नेता अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।
30 अक्टूबर,
2014
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