Saturday, October 4, 2014

यूं हीं होते हादसे

बिहार की राजधानी पटना का गांधी मैदान देश के बड़े मैदानों में से है, जहां पर कल दशहरा उत्सव के दौरान मची भगदड़ में तीस से ज्यादा लोग मारे गये हैं। देश के धार्मिक आयोजनों-तीर्थस्थलों में प्रतिवर्ष ऐसी एक-दो घटनाएं हो जाती हैं जिसमें पूरा परिवार या किसी--किसी के परिजन खो जाते हैं। कहते हैं डेढ़-दो लाख लोग दशहरा उत्सव देखने इस मैदान में इक_ हुए थे, सूबे के मुख्यमंत्री भी आए हुए थे। कार्यक्रम समाप्त होते ही उन्हें निकलना था। इसलिए व्यवस्था में लगा पूरा अमला उनकी सुरक्षित विदायगी में लग गया। हमारे यहां यह मान लिया गया है कि शासकों की जान, काम और उनका समय सबसे ज्यादा कीमती है और इसीलिए शेष सबकी जान, उनका समय, काम जब-तब भेंट चढ़ जाते हैं। आम-आवाम यह सब सहज-असहज होकर या कृतार्थ भाव से अपने साथ होने देता है। खीजतें भी हैं लेकिन बहुत कम या क्षणिक ही। हादसे होते हैं, अखबारों, टीवी चैनलों पर खबरें लग जाती हैं। ऐसे हादसों का श्राद्ध भी उनका रिकार्ड देकर इसी दौरान कर लिया जाता है। जो मर गये उनके परिजन कुछ दिनों बाद हादसे को भाग्य की विडम्बना मान कर सांत्वना पा लेते हैं। सरकार जांच बिठा देती है जो महीनों, वर्षों चलती है। पड़ताल के दौरान जिनकी लापरवाही के चलते वह सब हुआ और जिन्हें हादसे का दोषी ठहराया जाना चाहिए, ऐसे सब इन जांचों की बीड़ में आने से सपाट बचने के लिए मुस्तैदी से लग जाते हैं और ऐसे सब अधिकांशत: सफल भी हो जाते हैं।
इस दौरान मीडिया सहित सभी इस बहाने चुप्पी साध लेते हैं कि जांच हो ही रही है, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए। जब जांच की रिपोर्ट आती है तो अखबार के अन्दरूनी पन्नों के किसी कॉलमीय कोने में एक छोटी खबर लग जाती है जिसमें बता दिया जाता है कि हादसे का कारण कोई अफवाह थी या किसी मनचले ने किसी स्त्री के चूंटी काट दी, जिससे वह चिल्लाई और भगदड़ मच गई अत: व्यवस्था चाक-चौबन्द होने के बावजूद अचानक हुई घटना संभल नहीं पायी।
पटना के गांधी मैदान के चारों तरफ अस्सी से सौ फीट का व्यवस्थित मार्ग है जो मैदान के रिंग रोड का काम भी करता है। इस रिंग रोड के गंगा नदी की तरफ वाले हिस्से को छोड़ दें तो तीनों तरफ छोटे-मोटे दसियों ऐसे मार्ग हैं जो पटना के विभिन्न हिस्सों की तरफ जाते हैं। गंगा की तरफ भी बड़े-बड़े खुले क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें बहुत छोटे-छोटे स्मारक और भवन बने हुए हैं। इस गांधी मैदान के चहारदीवारी नहीं है, दो-ढाई फीट की लोहे की जालियां लगी हुई हैं जिसे फांद कर आराम से निकला जा सकता है। घटना से पहले के जो चित्र आए हैं उनसे लगता है कि बिना पैविलियन वाले इस मैदान के समतल भाग में लाखों लोग खड़े और बैठे हैं। सामान्यत: ऐसे बड़े आयोजनों में बल्लियां रोप कर बाड़े बना दिए जाते हैं और बाड़ों के बीच आवागमन के लिए गलियारे छोड़ दिए जाते हैं ताकि भगदड़ हो तो बाड़ाविशेष तक ही सीमित रहे। लगता है ऐसी कोई व्यवस्था आयोजकों ने नहीं की। अलावा इसके कहा जा रहा है कि कार्यक्रम समाप्ति पर इतनी भीड़ की निकासी के लिए केवल एक ही गेट खोला गया, जबकि इस मैदान के चारों ओर कई सारे गेट हैं। होगा यह कि जांच की रस्म अदायगी के बाद ज्यादा से ज्यादा आयोजकों को दोषी ठहरा दिया जायेगा। क्या ऐसे हादसों के लिए स्थानीय प्रशासन और पुलिस महकमा भी जिम्मेदार नहीं है जिसने इतने बड़े आयोजन की इजाजत दी। ऐसे आयोजनों की इजाजत से पहले क्यों नहीं मय ब्ल्यू प्रिंट पूरी व्यवस्था की जानकारी मांगी जाती है और क्यों नहीं भीड़ की निकासी के लिए बाड़ेगत संरचना की हिदायत और दरवाजों को खोलने की समयबद्धता पर सावचेती बरती जाती है?
जब तक अपने साथ घटित को भाग्य की विडम्बना मान कर संतोष पा लेंगे तब तक इस तरह की व्यवस्थागत लापरवाहियां होती रहेंगी। दोषी बचते भी रहेंगे और हो सकता है ऐसे 'दुर्भाग्यों' की जद और मार में कभी खुद तो कभी स्वजन और प्रियजन भी सकते हैं।

4 अक्टूबर, 2014

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