Monday, October 20, 2014

चुनावी प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों को पुष्ट करती है

गांधी ने अच्छे साध्य के लिए अच्छे साधनों को जरूरी बताया है। शासन प्रणालियों में लोकतंत्र को आदर्श माना गया है और इन्हें ऊर्जावान बनाये रखने के साधन के रूप में निश्चित अवधि में जनादेश पाने जैसी प्रक्रिया को अपनाने की आवश्यकता समझी गई। जनादेश यदि शुद्ध साधन है तो साध्य बुरा नहीं हो सकता। 1975 में आपातकाल लागू करने जैसी घटनाओं से लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भरोसा उठना वाजिब था लेकिन जनता के सामने जाने का दबाव इसी व्यवस्था में काम करता है। 1977 में इन्दिरा गांधी को भी इस दबाव में आना पड़ा था। हाल ही के उदाहरणों से समझें तो 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों में नरेन्द्र मोदी का जीतना इस चुनावी प्रक्रिया पर संशय पैदा कर सकता है। क्योंकि 2002 के गुजरात दंगे और गुजरात में उनके मुख्यमंत्रित्व काल की शासन शैली को लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। लेकिन मोदी ने अपना नाम भारतीय जनता पार्टी या राजग को बहुमत मिलने की स्थिति में प्रधानमंत्री के रूप में घोषित करवा लिया, इसके बाद से उन्होंने कई पलटियां खाईं ताकि उन्हें इस लोकतांत्रित प्रक्रिया में सर्वाधिक काबिल माना जा सके।

संप्रग के दस वर्षों के शासनकाल में भ्रष्टाचार का चौड़े आना, अर्थव्यवस्था को बाजार के हवाले करने के चलते महंगाई का लगातार बढ़ना एवं मनमोहनसिंह जैसे प्रधानमंत्री का होना, ये कारण सरकार से ऊब के लिए पर्याप्त थे। आजादी बाद शासन भी अधिकांशत: इसी पार्टी का था। जनता किसी भरोसेमन्द विकल्प की उम्मीद में थी, अन्ना हजारे के आन्दोलन ने इन उम्मीदों को और हरा किया। मोदी ही क्यों अन्य कोई भी प्रभावी विकल्प जनता को मिलता, जनता को उसे चुनना था। केजरीवाल यदि ऐसे भरोसे को जमा पाते और राष्ट्रव्यापी अभियान में मोदी से इक्कीस साबित होते तो जनता उन्हें भी एक विकल्प के तौर पर देख सकती थी। लेकिन केजरीवाल मोदी जितने घाघ हैं और ही उनमें मोदी की तरह साम-दाम-दण्ड भेद अपनाने का दुस्साहस है। ऐसे में एक विकल्प के तौर पर मोदी ने अपने को सफलता से प्रस्तुत किया और सफल हुए। आप कह सकते हैं इस सबके बावजूद यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया आदर्श कैसे हो सकती है। इसे हम मोदी के नायक बनने की एक वर्ष की प्रक्रिया से भी समझ सकते हैंसितम्बर 2013 से पहले मोदी की जो अडिग और अक्खड़ छवि थी उसमें इस दौरान कितने बदलाव देखे हैं, चाहे ये बदलाव दिखावे के या भ्रमित करने के लिए ही हों। मोदी ने अपना प्रचार अभियान शुरू करते ही विकास की बात की, भ्रष्टाचार मिटाने की बात की, महंगाई कम करने की बात की, खरबों रुपये के अवैध धन की लॉटरी दिखाई, द्विपक्षीय तौर पर हल हो सकने वाली पड़ोसी देशों की सीमाओं पर आए दिन की बदमजगी का हल छप्पन इंची सीने में बताया। इस पूरे अभियान में सब में संघ और भाजपा के असली ऐजेन्डेहिन्दुत्वी कट्टरपन, राम मन्दिर, समान नागरिक संहिता, धारा 370 जैसे मुद्दे गौण कर दिए गये। ऐसा इसलिए किया कि उन्हें लगा कि इससे उन्हें वोट मिल जायेंगे, जो मिल भी गये। लेकिन दिसम्बर 2013 के विधानसभा तथा इस वर्ष के लोकसभा चुनाव परिणामों से उन्हें वहम हुआ कि इन परिणामों में उनके असल मुद्दों का भी योगदान है अत: उत्तरप्रदेश के उन ग्यारह विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनावों में इसे आजमाने की कोशिश की। ये वह विधानसभा क्षेत्र है जिनके भाजपा विधायक सांसद हो चुके हैं। जनता ने भाजपा के इस संकीर्ण ऐजेन्डे को नकारते हुए उत्तरप्रदेश में अब तक की सर्वाधिक असफल सरकार चलाने वाली समाजवादी पार्टी को ही चुनना बेहतर समझा और ग्यारह में से आठ विधायक सपा के जितवा दिए।

मोदी और अमित शाह ने उत्तरप्रदेश उपचुनावों के इन परिणामों को सबक के तौर पर लिया और संकीर्ण ऐजेन्डे से पांव खींच कर विकास की ओर कदम बढ़ाने की बात फिर की तो जनता ने हरियाणा और महाराष्ट्र के चतुष्कोणीय मुकाबलों में भाजपा को ही चुना। मोदी-शाह का चुनावी ऐजेन्डे बदलना केवल लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था बढ़ाती है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को पुष्ट भी करती है। इन दोनों प्रदेशों में कांग्रेसनीत सरकारें थी, जिससे जनता फिलहाल अघायी हुई थी। अन्य दलों में जनता को कोई ददिया दीखा नहीं। हालांकि मोदी भी जनता की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे--इन आर्थिक नीतियों के चलते ऐसा लगता नहीं है। उम्मीदें टूटने तक भविष्य में होने वाले चुनावों में इससे भिन्न परिणामों की गुंजाइश नहीं लगती। उम्मीदें टूटीं और अन्य कोई प्रभावी विकल्प दीखा तो जनता मोदी को उतारने में देर नहीं लगाएगी। ऐसा होते रहना लोकतांत्रिक प्रणाली और मूल्यों की ताकत को बढ़ाता है और शासन प्रणाली का आदर्शतम रास्ता भी देर-सबेर इसी में से निकलेगा।

लोकतांत्रिक शासन पद्धति का सैकड़ों वर्षों का इतिहास भी ऐसी उम्मीदों की पुष्टि करता है। रही बात आलोचना की तो जिन देशों में यह शासन प्रणालियां मजबूत होती गईं उनमें आलोचनाओं का बड़ा योगदान है, अमेरिका और इंग्लैंड जैसी सर्वाधिक पुरानी लोकतांत्रिक प्रणालियों को आज भी आदर्शतम नहीं माना जाता। वहां आज भी शासन के निर्मम आलोचक होते हैं जो इस प्रणाली को पुष्ट करते रहते हैं।
इसलिए वोटर अपनी निष्ठा बजाय मोदी, राहुल, मुलायम, जयललिता में दिखाने के लोकतंत्र में दिखाए। इन्हें तो शासन भोग कर चले जाना है।
--दीपचंद सांखला

20 अक्टूबर, 2014

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