Saturday, September 27, 2014

अर्जुनदेव चारण की उपस्थिति और राजस्थानी की बात

राजस्थानी के कवि-नाटककार और आलोचक अर्जुनदेव चारण आज और कल बीकानेर में होंगे। दो दिन पहले भी श्रीडूंगरगढ़ जाते हुए उन्होंने यहां एक कार्यक्रम में शिरकत की। अर्जुनदेव चारण राजस्थानी के उन गिने-चुने सिरमौरों में से हैं जो अपनी सृजनात्मक प्राणवायु केवल और केवल राजस्थानी से पाते हैं! उनकी उपस्थिति के दुरुपयोग के बहाने राजस्थानी पर कुछ विमर्श की घसकाई लगाने का दुस्साहस कर लेते हैं।

सौ सवा सौ वर्ष की हिन्दी जिस तरह सैकड़ों वर्षों के सृजन में अपनी परम्परा का गुमान मानती है ठीक वैसा गुमान राजस्थानी भी करती है, उसका हक भी है। भाषा विकास को जानने-समझने की कोशिश करें तो प्राचीन मानी जाने वाली भाषाओं के विकास में लगे समय की गणना आसान नहीं है लेकिन हाल ही में स्वरूप पाई हिन्दी और राजस्थानी के विकास को ठीक-ठीक जान समझ सकते हैं। हालांकि अर्जुनदेव चारण जैसे विद्वान को राजस्थानी की तुलना हिन्दी से करना उचित नहीं लगता हो पर हिन्दी के वे आम पाठक जो अभी राजस्थानी के पाठक होने में असुविधा महसूस करते हैं, उनके विमर्श के लिए कुछ तुलनात्मक बातें करना जरूरी है।

हिन्दी के विकास को सबसे बड़ी अनुकूलता आजादी आन्दोलन से हासिल हुई। देश के बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली अनेक बोलियों के स्वतंत्रता आन्दोलन कार्यकर्ता और उनके नियंताओं को लगा कि गुलामी की भाषा अंग्रेजी के बरअक्स कोई अपनी भाषा विकसित होनी चाहिए जो देश के बड़े भू-भाग के बाशिन्दों को स्वीकार्य हो। आजादी से पहले के लगभग पचास वर्षों में हिन्दी भाषा के विकास में स्व स्फूर्त छोटे-बड़े सभी काम जिस तरह से सम्पन्न हुए, वह अपने आप में कम आश्चर्यजनक नहीं हैं। हिन्दी को लेकर कितने लोग और कितनी संस्थाएं कर्तव्यबोध के साथ काम कर रही थी वह भी कम उल्लेखनीय नहीं है।

व्याकरण, कई तरह के व्यवस्थित शब्दकोश और क्रियापद कारकों की लगभग एकरूपता हिन्दी का शृंगार बन गई। इसमें तब के भाषाविदों के साथ हिन्दी-सृजकों और साहित्यिक पत्रकारिता का योगदान भी कम नहीं आंका जा सकता। आजादी बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की कवायद और राजभाषा के चेपे ने इस भाषा के विकास में कोई योगदान किया हो, नहीं लगता। बल्कि इस तरह के प्रयासों ने जहां अन्य भारतीय भाषाओं को बिदकाने का काम किया वहीं सरकारी स्तर पर किए भाषा संबंधी अधिकांश प्रयासों ने या तो हास्यास्पद स्थिति पैदा की या इसे इतना दुरूह बना दिया कि वैसे शब्दों की जगह अनायास ही अंग्रेजी शब्द को हिन्दी शब्द संपदा का हिस्सा बनाना पड़ा।

राजस्थानी की बात करने के लिए हिन्दी की बात करना इसलिए जरूरी लगा कि इस तुलना के बिना बात करना संभव नहीं समझ पाया। आजादी बाद स्वरूप पाने वाली राजस्थानी के वर्तमान रूप को वह अनुकूलता हासिल नहीं हुई जो आजादी के आन्दोलन के दौरान हिन्दी को अनायास हासिल हुई। इसीलिए भाषा संबंधी वह जरूरी काम हो ही पाए जो किसी भाषा के विकास के लिए जरूरी होते हैं। साकरिया पिता-पुत्र और सीताराम लालस जैसे कर्मठ बीड़ा नहीं उठाते तो राजस्थानी का अपना कोई शब्दकोश भी शायद ही होता। साकरिया द्वय और लालसजी के किए को समेकित और संवार कर कोई एक शब्दकोश बनाने की जरूरत किसी ने नहीं समझी। और तो और, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित सीताराम लालस के दो खण्डों में राजस्थानी हिन्दी संक्षिप्त शब्दकोश के दूसरे संस्करण के आन्तरिक आवरण पृष्ठ पर प्रतिष्ठान के अधिकारी का नाम लालस के नाम से ऊपर प्रबन्ध सम्पादक के रूप में छपने पर राजस्थानी के मान की बात करने वालों में से कोई विचलित हुआ हो तो बताएं। कुछ महीनों या कुछ वर्षों के लिए पद स्थापित ये अधिकारी कैसे किसी की वर्षों की साधना पर अतिक्रमण कर बैठते हैं इसका यह बड़ा उदाहरण है। 

पर्यायवाची, विलोम शब्द और अन्य भाषाओं के शब्दकोशों की बात तो दूर की है, अलावा इसके राजस्थानी के विभिन्न क्षेत्रीय भाषा रूपों में जरूरी कारकों और क्रियापदों की समानता ऐसी परिस्थितियों में शायद ही बन पाए जब इन क्रियापदों की इक्ले-दुक्लै मात्राओं के लिए ही रचनाकार अड़े हुए हों। यही बात कारक की सामान्य समानता की जरूरत पर भी कही जा सकती है। इसे एकरूपता का आग्रह नहीं माना जाना चाहिए। यह पाठकों की अनुकूलता के लिए जरूरी है। हिन्दी वाले भी यदि ऐसे ही अड़े रहते तो हिन्दी भी पचास करोड़ लोगों की भाषा नहीं बन पाती। भाषा संबंधी यह सब काम नहीं होने से हो यह रहा है कि राजस्थानी में लेखकों के अलावा पाठक वर्ग विकसित ही नहीं हो पा रहा। यही कारण है कि 'माणक' जैसी लोकप्रिय पत्रिका हिचकोले खाते चल रही है तो अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं के पास अपने लेखकों के अलावा पचास पाठक भी नहीं हैं, इसे अतिशियोक्ति नहीं मानें। क्या कोई सोच सकता है कि इस भाषा का कोई अपना अखबार हो--इन परिस्थितियों में तो हरगिज नहीं।

अर्जुनदेव चारण राजस्थानी को जीने वाले लेखक हैं, उनसे उम्मीद की जाती है कि उन्हें अपनी प्रभावी जिम्मेदारियों के माध्यम से इस ओर ध्यान देना चाहिए। भाषा सम्बन्धी जरूरी कामों के अलावा उस भाषा में ज्ञान की अन्य सभी विधाओं में भी काम होना जरूरी होता है। जबकि राजस्थानी में अभी केवल साहित्य सृजन के अलावा विशेष कुछ हो भी रहा है तो जानकारी में नहीं है। 

राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में राजस्थानी के लिए कुछ उल्लेखनीय कर पायी हो, कह नहीं सकते। यह अकादमी आज तक केवल अकादमी को चलाने भर में ही लगी रही है। रही बात राजस्थानी की साहित्यिक पत्रिकाओं की तो वह कविता, कहानी, समीक्षा और संस्मरण छापने के अलावा कुछ करना अपनी जिम्मेदारी नहीं मानती जबकि भाषा के विकास के लिए बहुत कुछ करना होता है। राजस्थानी की रचनाओं पर मिलने वाला अनुदान और ढेर सारे पुरस्कार अबखाइयों का काम ही कर रहे हैं। रही बात मान्यता की तो यह काम किसी भाषा विशेष के लेखक का है और ना ही भाषाविद का--इसे उस भाषा के समाज को करना चाहिए, यदि वह जरूरी समझता है तो। --दीपचंद सांखला

27 सितम्बर, 2014

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