Friday, September 26, 2014

नवरात्र के बहाने कुछ असहज करने वाली बातें

नवरात्र का उत्सव प्रारम्भ हो चुका है। हिन्दू समुदाय में पौष, चैत, आषाढ और आसोज महीनों में वर्ष में चार बार मनाए जाने वाले इस त्योहार में आसोज के शारदीय नवरात्र का महत्त्व अधिक है। रामकथा के अनुसार लंका विजय के लिए आसोज सुदी एकम को राम ने समुद्रतट पर पूजा कर लंका की ओर कूच किया था। दशम को रावणवध का प्रसंग मिलता है। यूं तो यह आनुष्ठानिक त्योहार पूरे देश में मनाया जाता है लेकिन बंगाल, गुजरात और कर्नाटक में इसका विशेष महत्त्व है। इन तीनों ही प्रदेशों में इन दिनों अन्य सभी क्रियाकलाप थम से जाते हैं। बंगाल में दुर्गोत्सव के रूप में तो गुजरात में गरबा और डांडिया के बीच देवी की पूजा का विशेष महत्त्व है। कर्नाटक में इन दिनों पूरे माह दशहरा पर्व की धूम रहती है।
नवरात्र ही क्यों हिन्दुओं और अन्य धर्मवलम्बियों के अधिकांश त्योहारों की छिट-पुट आलोचनाएं तर्क और तथ्यों के आधार पर हमेशा होती आई हैं। चूंकि समाज में अब तक उच्च जातीय वर्गों का वर्चस्व ही रहा है और अधिकांश त्योहार मुख्यत: उच्चवर्गीय समूहों के ही रहे हैं सो इस तरह की आलोचनाएं ज्यादा प्रभावी नहीं होती थी। आजादी बाद पूरी तरह सही लेकिन कमजोर और पिछड़े वर्गों के लोगों में आत्मविश्वास कुछ जमने लगा तो उन्होंने इन सब त्योहारों और रीति-रिवाजों में अपनी अवस्थिति को टटोलना शुरू किया। देश के सन्दर्भ से बात करें तो यहां के बहुसंख्य पिछड़ा, आदिवासी और दलित समाज का नवबौद्धिक इन त्योहारों को अपने खिलाफ मानने लगा है। देश के दक्षिण-पूर्वी भाग के सभी आदिवासी अपने को असुरों का वंशज मानते हैं और नवरात्र और दशहरे को वे खुद पर उच्च वर्ग की जीत के जश्न के रूप में प्रचारित करने लगे हैं। आजादी बाद के थोड़े बहुत सामाजिक परिवर्तनों के बाद इन पिछड़े, दलित और आदिवासियों के प्रभाविवर्ग ने तथाकथित 'मुख्यधारा' में शामिल होकर त्योहारों को मनाना और इनके देवी-देवताओं को धोकना तो शुरू कर दिया लेकिन इन्हीं समुदायों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से ही वंचित है जिसमें समर्थ समाज के त्योहार मनाने और देवी-देवताओं को धोकने की गुंजाइश बने। यहां तक यदि ये लोग ऐसा करना भी चाहें तो हो सकता है आजादी के इन सड़सठ वर्षों बाद भी उन्हें हिकारत से देखा और दुत्कारा जाए। त्योहारों और अनुष्ठानों में शामिल होने की बेधड़क छूट पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों में से केवल उन्हीं को हासिल है जिन्होंने अपना रहन-सहन और पहनावा लगभग समर्थ समाज जैसा कर लिया। शेष तो सभी हिम्मत करना तो दूर की बात, ऐसा सोचना भी सम्भव नहीं कर पाते हैं।
यह सब सूचनाएं और जानकारियां सोशल साइट्स पर नहीं होती तो, तो समझ पाते और ही साझा कर पाते। इससे अलग भी जो चर्चा इस नवरात्रा के सम्बन्ध में सोशल साइट्स में होती है वे ज्यादा गंभीर और आंखें खोलने वाली हैं, यदि ऐसी मंशा हो तो। जिस देश में नवरात्रा उत्सव के माध्यम से कन्याओं को देवी मानकर पूजा जाता है उसी देश में कन्याओं, किशोरियों और महिलाओं के साथ क्या-क्या नहीं होता आया है, किसी से छुपा नहीं है। पहले कभी ऐसे कुकर्मों को सुर्खियां मिलना तो दूर फुसफुसाहट भी नहीं मिलती थी लेकिन अब कम से कम खबरें तो बनने लगी हैं।
कन्याभ्रूण हत्या और कमजोर स्थिति को अनुकूलता मान कर यौन शोषण और दुष्कर्म समर्थों और सबलों के कुत्सित खेल के रूप में सामने आने लगा है। और इन सब कुकृत्यों को आड़ तुलसीदास की कही 'समरथ को नाहिं दोष गुसाईंÓ से देना तो और भी धत्कर्म है। नवरात्र के इस मौके पर समाज स्त्री को देवी स्वरूपा मानने का ढकोसला चाहे करें, उसे स्त्री या मानवी मानना ही शुरू कर दे तो सार्थक शुरुआत हो सकती है।

26 सितम्बर, 2014

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