Tuesday, September 23, 2014

इंजिनियरिंग कॉलेज की उखड़ती सांसें

बीकानेर को तकनीकी विश्वविद्यालय दिखाकर चिढ़ाने की चिढ़ तो आयी गयी हो गई है। नेताओं और जनप्रतिनिधियों को इसे लेकर सांप सूंघा हुआ है। अब तो वे हलर-फलरिए भी नहीं मुसक रहे हैं जो अन्यथा सुर्खियां पाने का मौका तलाशते रहते हैं। जून के अन्तिम सप्ताह में मुख्यमंत्री को जब बीकानेर का दौरा करना  था तो मीडिया वालों ने भी तकनीकी विश्वविद्यालय के मुद्दे को खूब हवा दी, लगता है हवा कुछ ज्यादा ही लग गई सो मुद्दा परिदृश्य से ही ओझल हो गया राज की बातें राज ही जाने पर इतना तय है कि यह विश्वविद्यालय अब तभी मिलेगा जब सरकार वही लौटकर आयेगी जिसने इसका चिलका मारा था।
खैर, जितना हासिल है, उसे बचाए रखने की बात कर लेते हैं। इंजीनियरिंग कॉलेज, बीकानेर की साख तो दस साल पहले वाली लौटती नहीं लगती है, लेकिन स्ववित्त पोषित इस सरकारी कॉलेज का माजना इतना तो रहना ही चाहिए कि इसे विद्यार्थी मिलते रहें कि जितनों की फीस से इसे धकाए रखा जा सके! लगता अब यही है कि करतूतें ऐसी ही हो रही है कि अगले पांच-दस सालों में करोड़ों के इस भवन को खण्डहर में तबदील होने को छोड़ दिया जायेगा। स्ववित्त पोषित है तो सरकार आर्थिक जिम्मेदारी मानती नहीं और ये नेता और जनप्रतिनिधि इस कॉलेज में अपने-अपने आदमियों को घुसाने में इस तरह लगे हुए हैं कि दो सौ कार्मिकों का स्टाफ सरप्लस हो गया। ऐसी विचित्र स्थितियां इस कॉलेज को देखनी पड़ रही हैं कि उसके अस्तित्व पर ही बन आई। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही सरकारों के समय से इसे शरणार्थी गृह के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। आदमियों की जरूरत हो या हो इन नेताओं ने जिसका भी कह दिया उसे शरण में लेना पड़ेगा। जो प्राचार्य असमर्थता जताता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
बीकानेर तकनीकी विश्वविद्यालय को गर्भ में खत्म करने के बाद उसके कुलपति डॉ. एच.पी. व्यास को इंजीनियरिंग कॉलेज की प्रिंसिपली सौंपी। वे इसे कुछ पटरी पर लाने के प्रयासों में लगे ही थे कि स्थितियां ऐसी बना दी गईं कि कल उन्हें यह पद छोड़ देना पड़ा।
जनता वोट देने के बाद अपनी जिम्मेदारी खत्म मान कर सब कुछ अपने जनप्रतिनिधियों के जिम्मे मान लेती है। अगर इस तरह की स्थितियों में जनता सावचेत रहे तो नेता दुस्साहस नहीं दिखा सकते। लेकिन आमजन की ट्रेनिंग ऐसी रही नहीं है। अत: अब जो, जैसे और जितने भी इंजीनियरिंग कॉलेज से तनख्वाह पाते हैं उन्हें एकजुट होकर इसे बचाने की कवायद में लगना होगा अन्यथा स्ववित्त पोषित इस संस्थान का जो हश्र होना है सो होगा, उनकी आजीविका भी ताक पर चढ़े बिना नहीं रहेगी।
नेताओं और जनप्रतिनिधियों के अनावश्यक हस्तक्षेप ने इस अच्छे-भले कॉलेज का हाल ऐसा कर दिया कि इंजीनियरिंग की ओर घटते रुझान के बाद तो इसे विद्यार्थी मिलने के सांसे हो जायेंगे। पैसे देकर पढऩे वाला कोई ऐसे माहौल में आयेगा ही क्यूं? सरकार ने कभी किसी दबाव में कोई आर्थिक पैकेज दे भी दिया तो उससे होना जाना क्या है। कॉलेज को खड़ा तो अपने पैरों पर ही रखना होगा। इस प्रतिष्ठित कॉलेज से शहर की उम्मीदें इस तरह सांस उखड़ती दिखने लगेंगी, नहीं सोचा था।

23 सितम्बर, 2014

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