Monday, September 15, 2014

सुधरना सभी को होगा

आधुनिक न्याय व्यवस्था की शुरुआत भारत में लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पुराने मद्रास (चेन्नई) से मानी जाती है। वकालात के पेशे का उद्गम भी मोटामोटी तभी से हुआ। इस पेशे की संभवत: जरूरत इसलिए पड़ी कि लिखित कानून बनने के बाद यह माना गया होगा कि इसकी पेचीदगियां समझना आम-आवाम के बूते की बात नहीं है। सो वादी-परिवादी की ओर से बात को प्रभावी तौर पर रखने वाला अन्य कोई हो। अन्य पेशों की तरह यह पेशा भी दिन-दूना रात चौगुना फलता-फूलता रहा। वकालात के पेशे से अपना जीविकोपार्जन शुरू करने वाले गांधी ने अपने ही इस पेशे को धत्कर्म शायद इसलिए माना कि इस पेशे में लगे लोगों की सफलता गलत को सही स्थापित करना ही माना जाने लगा। वकालात यदि धत्कर्म है तो इसके लिए केवल इसी पेशे को भुण्डाना कितना उचित है, समझ में नहीं आता। अन्य पेशों की तरह यह पेशा भी इसी समाज के लिए, इसी समाज के लोगों द्वारा अंगीकार किया गया। अत: क्यों इस पेशे को भी सबल और समर्थ सामाजिकों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति माना जाय! वे कुछ गलत करते भी हैं तो उनसे ऐसा कुछ इसी समाज के लोग करवा रहे हैं। गलत करवाने की गुंजाइश भी विद्वज्जनों द्वारा बनाए कानून दे रहे हैं। यह भी कि इसके लिए इस न्याय व्यवस्था को भी पूर्ण बरी कैसे किया जा सकता है। या यूं कह लें कि घाण ही बिगड़ा हुआ है।
यह सब समझने की जरूरत पिछले कुछ दिनों से इसलिए महसूस की गई कि प्रदेश के वकील पिछले दो माह से ज्यादा समय से हड़ताल पर थे और वे चाह रहे थे कि इस न्याय व्यवस्था की बदतरी को ठीक किया जाय। इस बार आमने सामने न्यायपालिका और वकील ही थे। अड़सठ दिन चली इस हड़ताल का गतिरोध कहने को कल एक बारगी समाप्त हो गया लेकिन क्या न्याय व्यवस्था की बदतरी इसके बाद सुधर जायेगी? दो-एक जजों के स्थानान्तरण सहित अन्य मांगों पर मिले आश्वासनों के आधार पर स्थगित की गई इस हड़ताल को मात्र फुस्स होना मानेंगे तो मुगालते में नहीं रहेंगे।
दरअसल वकीलों की मांगों का परिप्रेक्ष्य अन्य अधिकांश सरकारी गैर-सरकारी कर्मियों की मांगों और आंदोलनों जैसा ही है जिनमें खुद का कर्तव्यबोध लगभग नदारद होता है। सरकार के बहाने समाज और नियोजक के प्रति खुद की जिम्मेदारी को निष्ठापूर्वक निभाना इनमें से कितने लोग जरूरी मानते हैं, जबकि चाहना यही रहती है कि सामने वाले सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी को निष्ठापूर्वक निभाएं। मजे की बात यह है कि ऐसे कृत्य जब तक जुगलबंदी की तर्ज पर किए जाते रहें तब तक तो ठीक मगर जैसे ही किसी एक की ताल बेताल हो या  सुर बेसुरा लगे तो गड़बड़जजों और वकीलों में ताजा तनातनी इसी का नतीजा था।
वकालात के पेशे की प्रतिष्ठा की असलियत वे सभी जानते हैं जिनका साबका इनसे पड़ता है लेकिन विकल्पहीनता में 'मरता क्या नहीं करता' वाली ही बात है, जाए तो जाएं कहां। समाज के सभी क्षेत्रों में मूल्यों और निष्ठा की गिरावट न्याय व्यवस्था और वकालात के पेशे में ज्यादा खलती है, इसलिए दीखती भी ज्यादा है। क्योंकि थोड़ी बहुत उम्मीदें जो शेष हैं वह इन्हीं से है। अन्यथा कौन नहीं जानता है कि अपने-अपने मुवक्किल से ये वकील क्या-क्या कहलवाते-करवाते हैं और लगातार बढ़ती 'चेम्बर प्रैक्टिस' से वकीलों और जजों को मुक्त रखना मुश्किल होता जा रहा है।
अड़सठ दिनों की यह हड़ताल इस व्यवस्था में सुधारे की कम और जैसे-तैसे वकालात पेशे की अनुकूलता बनाये रखने की कवायद ही ज्यादा थी। इसी तरह न्यायतंत्र भी अपने घावों को ठीक करने की कम, ढकने की कोशिशों में ज्यादा लगा रहता है ताकि उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे। लेकिन इस तरह ढका-ढुकी से हासिल ये प्रतिष्ठा भी कब तक बची रहेगी। न्यायतंत्र और वकालात का पेशा पूर्ण कर्तव्यनिष्ठ हो जाए तो समाज में सुधारा चामत्कारिक दिखने लगे पर ऐसी उम्मीदें केवल 'इनसे' करना भी वैसे ही है जैसे 'खुद तो नहीं सुधरेंगे, दूसरे तमाम सुधर जाएं।'

15 सितम्बर, 2014

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