Friday, August 8, 2014

जिला परिषद की बैठक और स्थानीय स्वराज

दुनिया के इस भाग में बसे भारत देश की तासीर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की मानी गयी है। इतिहास में भी उल्लेख उसी समय का हुआ है जब सत्ता केन्द्रीकृत हुई और उल्लेख अधिकांशत: नकारात्मक ही हुए हैं। गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे और आजादी हेतु छितराए आन्दोलनों से जुड़े लोगों ने जब गांधी को आन्दोलन की कमान सम्हालने का आग्रह किया तो गांधी ने पहले देश की तासीर और सामाजिक ताने-बाने को समझना जरूरी समझा और वे देश की यात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा ने गांधी को केवल आन्दोलन का प्रारूप तय करने में सहूलियत दी बल्कि इसी यात्रा में बने सम्पर्कों से आजादी के अभियान को एक सूत्र में पिरोया। कहने को कह सकते हैं कि आजादी के इस राजनीतिक अभियान को संचालित करने के लिए देश की तासीर और सामाजिक ताने-बाने को समझने की क्या जरूरत थी। ऐसे में क्या इस बात को नजरअन्दाज ही कर रहे होते हैं कि राजनीति सहित अन्य सभी क्रिया-कलापों की भाव भूमि तय करने में सामाजिक ताने-बाने और तासीर की अहम भूमिका होती है। यही वजह है भारतीय आजादी का अभियान लगभग प्रत्येक भारतीय के चित्त चढ़कर बोलने लगा था।
गांधी ने देश को जिस तरह समझा उसी का परिणाम है कि उन्होंने शासन के विकेन्द्रीकृत स्वरूप की पैरवी की जिसमें ग्राम स्वराज को आदर्शतम बताया गया। ग्राम स्वराज यानी शासन-प्रशासन, संसाधन और रोजगार तक में स्वावलम्बन कि यानी किसी भी केन्द्रीय सत्ता की जरूरत कम से कम। आजादी बाद जवाहरलाल नेहरू ने देश की कमान संभाली, नेहरू यूरोप में पढ़े और विकास के यूरोपियन मॉडल से वे लगभग सम्मोहित थे। बड़े-बड़े कल कारखाने, बड़े बांध और बड़ी-बड़ी योजनाएं समृद्धि के उनके मानक थे। यूरोप में पढ़े तो गांधी भी थे लेकिन वे सम्मोहित नहीं हुए। जितना भारतीय तासीर के अनुकूल था ग्रहण किया, उतने को ही संजोया। यही कारण है कि गांधी ने सत्ता के ज्यादा से ज्यादा विकेन्द्रीकरण के साथ स्थानीय स्वराज की बात कही। गांधी की इस धारणा का सम्मान और विकास के अपने यूरोपियन सम्मोहन की दुविधा नेहरू के आयोजनों में देखी जाती रही है। देश में बड़ी योजनाओं के साथ नेहरू ने 1959 में राजस्थान के नागौर में पंचायतराज व्यवस्था की नींव रखी। विकास और शासन की एक-दूसरे से विपरीत दिशाओं की यह दुविधा देश में आज तक जारी है। यही कारण है कि विकास के मशीनी यूरोपियन मॉडल और राज के स्थानीय स्वराज के मानवीय मॉडल के बीच देश झूलता रहा है।
इसी दुविधा को बढ़ाने के विषम प्रयोग को कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने आर्थिक क्षेत्र में उदारीकरण को लागू करके और पंचायतराज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देकर आगे बढ़ाया।
कल जब बीकानेर जिला परिषद की साधारण सभा की आठ माह बाद हुई बैठक में सदस्यों द्वारा गत बैठक की कार्यवाही रिपोर्ट को बिना पढ़वाए पुष्टि करके और गत बैठक में सदस्यों और विधायकों द्वारा उठाए गए मुद्दों की अनुपालना रिपोर्ट को गुमराह करने वाली बताकर आक्रोश जाहिर करने के समाचार मिले तो उपरोक्त सब का जिक्र करने की इच्छा हो आई। अफसरशाही और पंचायतराज के जनप्रतिनिधि भी देश की सार्वजनिक सम्पत्ति और धन की छीना-झपटी में लगे देखे जाते हैं। देश के समर्थों और सबलों के प्रत्येक कार्य-व्यापार बिना भ्रष्टाचार के संभव नहीं रह गए और भ्रष्टाचार के उपउत्पाद (बाइप्रॉडक्ट) गैर-जिम्मेदारी और लापरवाही कोढ़ में खाज का काम करने लगे हैं। ऐसे में पंचायतराज भी इस सबसे कैसे अछूता रहता। बल्कि पंचायतराज व्यवस्था में भ्रष्टाचार, गैर जिम्मेदारी और लापरवाही की विद्रूपता ज्यादा दिखाई देने लगी है। पंचायतराज व्यवस्था शहरी निकायों और सरकारी दफ्तरों के नकारात्मक पक्ष से मानो होड़ लेने लगी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश का मतदाता लोकतांत्रिक देश के नागरिक के रूप में जिम्मेदार होगा, अन्यथा जिस ओर देश जा रहा है वह लोकतांत्रिक मूल्यों की दिशा है, ही मानवीय मूल्यों की।

8 अगस्त, 2014

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