Thursday, August 7, 2014

किशोर न्याय अधिनियम में बदलाव के बहाने

दिसम्बर, 2012 के निर्भया कांड में सर्वाधिक जघन्यता से पेश आए किशोर पर भारतीय दंड संहिता की धाराएं इसलिए लागू नहीं की जा सकी कि वह अवयस्क यानी अठारह वर्ष से कम आयु का था। कहा जाता है कि इसका पता लगने के बाद से उसके हाव-भाव बेखौफ हो गए। उसके सह अपराधियों को जिस अपराध के लिए फांसी की सजा सुनाई गई वहीं उसे वर्तमान कानूनों के अनुसार तीन साल के लिए बाल सुधार गृह में ही भिजवाया जा सका। यह समय के गर्भ में ही है कि तीन साल बाद अर्थात अगले वर्ष जब उसकी सजा पूरी हो जायेगी तो क्या वह सचमुच सुधर जायेगा। वैसे समाज के और इन सुधार गृहों के अनुभव यही कहते हैं कि यदि कोई सुधरना चाहे तो भी सुधार गृहों और छूटने के बाद समाज में जिनसे भी उसका संवाद होता है उनका व्यवहार ऐसा ही होता है कि उस पर चस्पा लेबल और गाढ़ा होता चला जाता है।
केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने कल किशोर न्याय अधिनियम (जुवेनाइल जस्टिस एक्ट) में संशोधन को अपनी मंजूरी दे दी है। इसके संसद से पारित होने पर सोलह से अठारह वर्ष की आयु के किशोर अपचारियों पर भारतीय दण्ड संहिता की वही धाराएं लग सकेंगी जो वयस्क अपराधियों पर लगती हैं। किशोर अपराधियों से सम्बन्धित घटनाओं की खबरों में जिस तरह की बढ़ोतरी हुई, खासकर उनके द्वारा अंजाम दी जा रही अपराध की घटनाएं समाज के लिए चिंताजनक हो सकती हैं। हालांकि कुछ लोग उक्त संशोधन से इत्तेफाक नहीं रखते, उनके अपने वाजिब तर्क भी हैं। ऐसे में उन सम्बन्धित न्यायाधीशों की सावचेती और बढ़ जायेगी जिन पर ऐसे मुकदमों पर न्याय देने की जिम्मेदारी होगी।
शोध का यह अलग विषय हो सकता है कि अपराध का उम्र से क्या सम्बन्ध है, और किस वय में किस तरह के अपराधों की संख्या पहले क्या थी और अब क्या है। लेकिन यह पक्का है कि विभिन्न तरह के अनौपचारिक सामाजिक शिक्षण का अवलोकन छोटे-बड़े विभिन्न अपराधों के कारणों का तलपट सामने रख देते हैं।
बाल विवाह की बिना पैरवी किए यह बताना जरूरी है कि समाज की एक व्यवस्था थी कि यौनकर्म के योग्य होने के साथ-साथ किशोर-किशोरी का विवाह कर दिया जाता था। ऐसे में अच्छे-बुरे यौनिक प्रयोगों का शिकार सामान्यतया जीवनसाथी होता था, तत्सम्बन्धी सीख देने वाला अंतरग समझदार बीमार मन का हो तो विवाहित जोड़े के लिए सुखद होता और वह अंतरंग इसके उलट होता तो वैवाहिक जोड़े के लिए भुगत कर सुधरना या बिगड़े रहना मजबूरी बन जाता। ऐसे में अधिकांशत: पीडि़त स्त्रीपक्ष ही रहा है, क्योंकि उसकी सामाजिक हैसियत आज भी बराबरी की नहीं होकर दूसरे-तीसरे दर्जे की है। ऐसे में किशोरमन अनौपचारिक तौर पर अपने अंतरंगों से कुछ भी अच्छा-बुरा सीखता और दुष्प्रेरित होता और उसे आजमाता है। इसके यह मानी कतई नहीं हैं कि विवाहित लोग यौन अपराधों में कम लिप्त पाये जाते हैं। वयस्क अपराधी अधिकांशत: विवाहित ही होते हैं। चूंकि चर्चा किशोर न्याय अधिनियम की हो रही है सो यहां बात भी उसी वय से सम्बन्धित की जानी लाजिमी है।
परम्परा और आधुनिकता के इस घालमेल समय में समाज को जीवन शैली और रंजन के क्रिया कलाप चाहिए तो आधुनिक पर मन से उसकी पूर्व तैयारी नहीं होती। सामाजिक वर्जनाओं के चलते यौन सम्बन्धी जैसी भी अधकचरी समझ वह अर्जित करता है उसका मन वैसे ही उसे क्रियान्वित करने के अवसर को हड़पने का जुगाड़ ढूंढ़ता है। ऐसे में क्या यह उचित नहीं है कि कुछ लोग ऐसे कानूनों के साथ यौन शिक्षा की उम्र और पाठ्यक्रम भी तय किए और पढ़ाए जाने चाहिएं। हो सकता है और होता ही रहा है कि कुछ लोग ऐसे सुझावों पर तथाकथित परम्परावादी और संस्कृतिरक्षक बन ले _ खड़े हो जाएंगे। ऐसे लोग तब भी नहीं बदलते जब उनका कोई परिजन और प्रियजन ऐसी घटनाओं का शिकार होता है। यौन शिक्षा इसलिए भी जरूरी है कि लगभग वर्जित मान लिए गए इस विषय को जानने की लालसा पूरी करने के लिए अब केवल वे अंतरंग ही नहीं रहे छपी सामग्री से लेकर ऑडियो, वीडियो इंटरनेट तक के बेलगाम और अनधिकृत अनेक स्रोत सुलभ हो गये हैं। इस तरह के अपराधों की पड़ताल करें तो इनके दुष्प्रेरकों में ऐसे स्रोत भी गिनती में आएंगे। बुरी और आपराधिक करतूतों पर अंकुश कानून और दण्ड एक सीमा तक ही रख सकते हैं। नई जीवन शैली और रंजन के नये साधनों को अपनाया है तो उनकी बुराइयों से बचने के औपचारिक उपाय भी समाज को निस्संकोच अपनाने होंगे।  अन्यथा स्थितियां और बदतर होंगी। हम क्यों नजर अन्दाज करते हैं कि इन कानूनों की चलनी लिए बचाने और छंटाई करने-करवाने वाले वकील और जज भी इसी अधकचरे समाज का हिस्सा हैं। सुधरना समाज को होगा। ऐसा नहीं होता कि 'मीठा-मीठा गप्प और खारा-खारा थू'

7 अगस्त 2014

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