Wednesday, August 6, 2014

हार जीतने के भाव में ही दुबकी होती है

ऐसा नहीं है कि दिसम्बर 2012 के निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म सम्बन्धी नये बने कानून का कोई असर नहीं हुआ और यौन दुराचार बढ़ गये हैं। भारत ही क्यों दुनिया की अधिकांश समाज व्यवस्थाओं में स्त्री को समाज में दोयम हैसियत से बरता जाता है और यदि वह समाज के निर्बल और गरीब समूह से हो तो उसकी हैसियत की कूंत खत्म ही हो जाती है यानी दूसरा दर्जा तो दूर तीसरे-चौथे दर्जे की नागरिकता का सम्मान भी उसे नहीं दिया जाता। क्योंकि निर्बल और गरीब समूहों के पुरुषों की ही सामाजिक हैसियत तीसरे-चौथे दर्जे से भी गयी गुजरी होती है और हिकारत के बरताव को भोगना उनकी नियति होती है।
सदियों से पुरुषों ने ही समाज की बागडोर अपने हाथों में ले रखी है, स्त्रियों ने भी इस धारणा को अनायास ही मान्यता दे रखी है। ऐसे में समाज में जिसे समर्थ और सबल मान लिया गया उसने अपने से प्रत्येक-कमजोर को डांटने-डपटने, प्रताडि़त करने, मारने-पीटने से लेकर सामने वाले की इच्छा जाने बिन यौन दुराचार तक करने का हक मान लिया है। ऐसी मर्द मानसिकता वाला समर्थ यदि समलैंगिक सम्बन्धों में तुष्टि महसूसता है तो पुरुष शिकार होते हैं और विपरीत लिंगी में तुष्टि महसूसता है तो स्त्रियां, युवतियां-किशोरियां। मन से बीमार ज्यादा हो तो बालक-बालिकाएं तक शिकार होते हैं। ऐसी करतूतें अचानक बढ़ गयी हों, ऐसा नहीं है। सदियों से यह होता रहा है। पीडि़त पक्ष बर्दाश्त करके इसलिए रह जाता है कि वह कमजोर है, सबल ऐसा हमेशा से करते आए हैं। समाज की इसी धारणा के शिकार स्त्री हो या पुरुष बदनामी के डर से या कमजोर कानून और किसी भी अन्य तरह की कमजोरी के चलते ऐसे कुकुर्मों को अब तक चुनौती नहीं मिलती थी।
नया कानून बना, न्यायपालिका ने उसे गंभीरता से लिया तो पीडि़त पक्ष यह हिम्मत दिखाने की स्थिति में गया कि वह शिकायत कर सके। कहने को कह सकते हैं कि अब आए दिन ऐसे कुकर्मों की खबरें पढऩे-देखने को मिल रही हैं, समाज का चेहरा विद्रूप हो रहा है, कानून का दुरुपयोग हो रहा है। चेहरा हमेशा से विद्रूप ही था। पीडि़त पक्ष ने तो बस उसे आईना दिखाने की हिम्मत जुटा ली है। रही बात दुरुपयोग की तो यदि कानून में कोई कमी है तो वह प्रभावी होगा तो कमियों पर भी विचार कर उसे दूर किया जाना चाहिए।  वैसे देखा यही गया है कि समाज में कमियों को दूर करने की तो इच्छाशक्ति है और ही वह इसकी जरूरत समझता है। नतीजतन उन्हीं कमियों में सबल और समर्थ लोग अपने लालच और तुष्टियों को सहलाते रहे हैं।
नेता और अधिकारी तो हैं जैसे हैं। आशान्वित समाज जिन न्यायाधीशों और पत्रकारों से उम्मीद पालता है, मर्दानगी सहलाने की उनकी करतूतें भी अब चौड़े आने लगी हैं। पहले उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश गांगुली और अब ग्वालियर उच्च न्यायालय के जस्टिस गंगेल पर ऐसे ही आरोप लगे हैं तो पत्रकारिता में तरुण तेजपाल और इण्डिया टीवी के नियंता भी कठघरे में हैं।
जिन्होंने हिम्मत की वैसे पीडि़त सुखियों में हैं लेकिन क्या इसका अन्दाजा है कि देश में आज भी प्रतिदिन कितनों के ऐसे साहस की सांस ये सबल और समर्थ तत्क्षण बन्द करवा देते हैं। सैकड़ों यदि मार दी जाती होंगी तो हजारों की सिसकियां खुद उनके परिजन ही दबा देते होंगे। यौन संबंधों को मर्द जब तक स्त्री पर विजय भाव से लेगा तब तक मर्दानगी के परीक्षण के लिए ऐसे कुकर्म करता रहेगा। यौन सम्बन्ध कुश्ती या मल्लयुद्ध नहीं, दूसरे को सुख देने की क्रिया है। यह भाव जब व्यापने लगेगा तभी कुकर्म रुक सकेंगे। ऐसा तभी संभव है जब मनुष्य सभी को समान समझे और सुख के प्रत्येक साधन और क्रिया पर सबका बराबरी का हक माने।

6 अगस्त, 2014

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