Monday, August 25, 2014

शास्त्रों से कब बंधी आस्था

पिछले कुछ दिनों से एक विवाद इसलिए सुर्खियां पाए है कि शंकराचार्य स्वरूपानन्द ने कह दिया कि साईंबाबा को भगवान नहीं कहा जा सकता और ही वे हिन्दुओं के पूज्य हो सकते हैं। उनकी इसी बात के अनुसरण में इस दौरान छिट-पुट बयानबाजी होती रही। कवर्धा, छत्तीसगढ़ में सम्पन्न हुई दो दिवसीय धर्मसंसद में उपस्थित धर्माचार्यों ने भी कह दिया कि साईंबाबा भगवान नहीं हैं।
धर्मसंसद के इस निर्णय से यह लगता है कि वे 'धर्म और आस्था' दोनों की भारतीय तासीर को नजरअन्दाज कर रहे हैं। आस्था की जिस सनातन परम्परा को उन्होंने हिन्दू शब्द में सीमित कर दिया, उसी परम्परा में अपने-अपने इष्ट इतने हैं कि गिनती करना संभव नहीं है, यानी शास्त्रोक्त देवी-देवताओं के अलावा कुलदेवता, कुलदेवियां, लोकदेवता, लोकदेवियां इनके अलावा पितरों, भोमियों और अब तो जातीय देवता भी ध्याये-पूजे जाने लगे हैं। इनके अलावा कितने धर्मगुरु भगवान की गोल-मटोल व्याख्याओं से खुद को भगवदरूप से पुजाने लगे हैं--इसकी पड़ताल का समय किनके पास है। साईंबाबा तो इनके टारगेट में इसलिए गये क्योंकि केवल उनके शिरडी मन्दिर में करोड़ों का चढ़ावा आने लगा बल्कि साईंबाबा अकेले ऐसे नये देवता हैं जिनके मन्दिर पूरे देश में तेजी से स्थापित होने लगे हैं। शास्त्रोक्त देवी-देवताओं के अलावा किसी भी लोक और कुलदेवी-कुल देवताओं को अचानक इतना श्रद्धेय होता नहीं देखा गया। साईंबाबा के विरोध का एक कारण उनका इसलामी कुल में पैदा होना भी मान सकते हैं। लेकिन तब हम यह क्यों भूल जाते हैं कि कितने ही हिन्दुओं ने पीर-मजारों को अपना इष्ट मान रखा है तो कितने मुसलमान हिन्दू देवी-देवता की पूजा-अर्चना करते हैं। लोकदेवता बाबा रामदेव जैसे उदाहरण भी कई मिल जाएंगे जिनके आगे मुसलिम धर्मावलम्बी रामसा पीर कह कर अपना मत्था टेकते हैं।
श्रद्धा और आस्था तर्कों से परे तो मानी ही गई है और उसके शास्त्रों में बन्धे होने के प्रमाण रूप में हम अमरनाथ और वैष्णोदवी के लिए अथाह उमड़ते श्रद्धालुओं को देख सकते हैं। अमरनाथ बारह ज्योतिर्लिंगों में गिने जाते हैं और ही वैष्णोदेवी इक्यावन शक्तिपीठों में, और तो और कहा यह भी जाता है कि इन दोनों ही धामों का शास्त्रों में उल्लेख तक नहीं है! बावजूद इसके अमरनाथ सभी ज्योतिर्लिंगों और वैष्णोदेवी सभी शक्तिपीठों से ज्यादा श्रद्धा के केन्द्र बनते जा रहे हैं। देवी-देवताओं के ऐसे नये रूपों का तीव्रगति से श्रद्धा केन्द्र होने का एक कारण जहां संचार साधनों के विस्फोट को मान सकते हैं तो पर्यटन का लालच भी कम काम नहीं करता। दूसरा यह कि इस आधुनिकीकरण और भ्रष्टाचार से आप्लावित जीवन शैली ने मनुष्य को अन्दर से कमजोर किया है, अपने और अपनों पर भरोसा कम होने की प्रवृत्ति और हासिल से ज्यादा हासिल करने के लालच ने भी परम्परागत श्रद्धा केन्द्रों से मोह भंग करवाया है। अन्यथा पता कर लें कि इन सभी नये श्रद्धा केन्द्रों में जाने वाले समाज के किस आर्थिक समूह से आते हैं। गरीब तो अपवादस्वरूप मिलेंगे। मध्यम वर्ग उच्च मध्यम से और उच्च मध्यम उच्च वर्ग से होड़ में अपनी श्रद्धा को भी स्थानान्तरित करने लगा है। समाज ने सफलता और उच्चता के जो नये मानक--धन और समृद्धि--मान लिए हैं उसमें श्रद्धा को लेन-देन की प्रवृत्ति में सीमित होने से कैसे रोक सकते हैं।
शंकराचार्यों को अपने 'हिन्दू धर्म' के लिए सचमुच ही कुछ करना था तो उन्हें इधर-उधर झांकने की जरूरत नहीं थी। उन्हें आदि शंकराचार्य द्वारा समझी गई चुनौतियों और उनके उपायों को ही समझ लेना चाहिए था। इस भू-भाग में जैन और बौद्धों के बढ़ते प्रभाव को उन्होंने चुनौती माना और केवल सनातन परम्परा की पुनर्वाख्या की बल्कि उसे प्रतिष्ठित करने के आधारभूत उपाय किए, कि ले लट्ठ वे जैनियों और बौद्धों के पीछे पड़ गये! आज हो यह रहा है कि उन सब उपायों को बजाय चेतन रखने के, रूढ़ बना दिया गया और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों को विवादों का केन्द्र। ऐसा तभी होता है जब 'दंभ और स्वार्थ' अध्यात्म पर हावी हो जाता है।

25 अगस्त, 2014

No comments: