शास्त्रीय
कलाओं, संगीत
और साहित्य की लोकप्रियता पर अकसर बेवजह प्रश्न खड़े किए जाते रहे हैं। कल शाम जब कन्नड़ के बड़े साहित्यकार यूआर अनन्तमूर्ति के निधन का समाचार प्रसारित हुआ तो सोशल साइट्स की उन पर चर्चा में लोकसभा चुनावों से पहले दिए उनके उस बयान की भी चर्चा रही, जिसमें
उन्होंने कह दिया था कि मोदी यदि प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे देश छोड़ कर चले जाएंगे। इस बयान के बाद मोदीनिष्ठों ने स्थितियां ऐसी उत्पन्न कर दीं कि बेंगलुरू स्थित उनके निवास पर पुलिस सुरक्षा लगानी पड़ी, जो
कल दिन तक थी। कल उनके निधन पर कुछ अति-मोदीनिष्ठों
ने पटाखे भी फोड़े तो कुछ ने मिठाइयां बांटने की बातें भी कीं। हो सकता है मोदीनिष्ठों के संस्कार ऐसे ही हों। कई पोस्टें ऐसी भी डाली गईं जिनमें बताया गया कि यूआर के उस बयान से पहले उन्हें जानता ही कौन था। अज्ञान का यदि साया होता है तो बेटा अपने मात-पिता
को नहीं पहचानता और भाई, सगे
भाई से दुश्मनी पाल लेता है। ऐसी स्क्रिप्टें हिन्दी सिनेमा का स्थाई विषय रही हैं। यदि हमें नहीं जानना या रुचि न हो
तो पड़ोसी से भी अनभिज्ञ रह सकते हैं। ऐसी ही सीमाएं दुनिया के-तमाम
विषयों, कलाओं, तथ्यों और जीव-अजीवों
के सम्बन्ध में मानी जा सकती हैं।
बयासी
वर्षीय यूआर अनन्तमूर्ति ऐसे लेखक हैं जिनकी गहरी आस्था सामाजिक समानता और मानवीय मूल्यों में रही है। सामाजिक कुरीतियों पर उन्होंने जमकर लिखा। उनकी रचनाओं में इस आस्था को पढ़ा जा सकता है। अपनी रचनाओं के कारण उन्हें तथाकथित उच्च वर्ग का भारी विरोध भी झेलना पड़ा। यूआर उन आधुनिक भारतीय लेखकों में हैं जिनकी पहचान पूरी दुनिया में है। पूरी दुनिया के मानी यही है कि वह दुनिया जिसकी रुचि 'क्लासिक
लिटरेचर' में
है। ऐसा हर युग में रहा है कि शास्त्रीय या जिसे कलासिक्स कहते हैं उनमें रुचि समाज के छोटे समूह की होती है, लेकिन
क्या ऐसा शास्त्रीय कला, संगीत
और साहित्य के साथ ही है? थोड़ी
विहंगमीय दृष्टि से विचारें और समझें तो पाएंगे कि ऐसा उन सभी विषयों, विधाओं
और तथ्यों के साथ है जो 'लोक' से भिन्न हैं। विज्ञान, दर्शन, अध्यात्म, गणित
आदि-आदि
के विद्वान कितने'क
होते हैं और पाठ्यक्रमीय मजबूरी को छोड़ दें तो इन विषयों में उच्च अध्ययन की रुचि कितनों'क
में पायी गई है। शास्त्रीय कलाओं, संगीत
और साहित्य पर नाक-भौं
सिकोडऩे वाले क्या विज्ञान, दर्शन, अध्यात्म और गणित जैसे विषयों पर भी अपनी वैसी ही राय रखते हैं?
इसे
हमारी अज्ञानता ही कहा जायेगा कि हम नहीं समझ पा रहे हैं कि 'लोक' को पोषण उक्त विषयों से ही मिलता है और उक्त सभी विषयों के पारंगतों को उक्त क्लासिक्स में प्रवृत्त होने की प्रेरणा, अनुकूलता
और अवकाश इसी समाज से मिलती है। इस तरह ये दोनों एक-दूसरे
के लिए सिद्ध और साधक की भूमिका निभा रहे होते हैं। जो लोग शास्त्रीय और लोक का फ्यूजन बनाने में लगे हैं, समस्या
उनकी ही है कि वे 'लोक' के पूरे तो बन नहीं पाते, शास्त्रीय
की भी पैरोडी बन कर रह जाते हैं। शास्त्रीय से शिकायतें भी ऐसों को ही ज्यादा होती हैं।
यूआर
अनन्तमूर्ति की मृत्यु को उपहास और जश्न का बहाना जो मान रहे हैं, उम्मीद
है वे थोड़ा ठिठक कर मानवीय होने की कोशिश करेंगे। अनन्तमूर्ति जैसे कुछ कहते हैं तो उसके पीछे पूरे जीवन की परार्थ साधना होती है और परार्थ का स्थान परमार्थ और स्वार्थ से इसलिए ऊपर मान सकते हैं कि परार्थ पूरी तरह अपने से इतर के निमित्त ही होता है।
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प्रणाय्य (वि.) : 1. प्रिय
प्यारा, 2. खरा, ईमानदार, स्पष्टवादी, 3. अप्रिय, अनभिमत—(संस्कृत-हिन्दी
कोश-वा.शि.आप्टे)
23 अगस्त, 2014
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