Monday, August 18, 2014

छात्रसंघ चुनाव : चरखे और चरचे

महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए यह चुनावी सप्ताह है, नामांकन, नाम वापस लेना, मतदान और परिणाम में इसे बीत जाना है। छात्रसंघों के चुनावों ने जो भद्दा रूप ले लिया था उसके चलते लगभग सभी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों ने बीच के वर्षों में लम्बे समय तक इनसे तौबा कर रखी थी। उच्चतम न्यायालय में इन चुनावी प्रक्रियाओं को चालू करवाने की याचिका लगी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने सरकार की ओर से पक्ष रखकर सफाई दी। साफ सुथरे छात्रसंघ चुनावों के लिए न्यायालय ने नये सिरे से नियम-कायदे तय करने के निर्देश दिए। भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने 2006 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। बावजूद इसके महाविद्यालय-विश्वविद्यालयों में प्रशासक चुनाव करवाने की हिम्मत और इच्छाशक्ति नहीं जुटा पाए। न्यायालय ने ताकीद की तो ये फिर शुरू हुए हैं, नये नियम-कायदों के चलते शुरू के दो-तीन वर्षों तक तो पता ही नहीं चला कि कब चुनाव हो लिए। उसके बाद तो इन चुनावों में पहले वाले घोड़े और वही मैदान हो गए। हां, घोड़ों पर तामझाम कुछ वर्ष जरूर नहीं दिखाई दिया, जो अब फिर से दीखने लगा। बड़े संस्थानों के चुनावों में झंडे, डंडे, गाड़ी-घोड़े, पोस्टर, बिल्ले आदि चौड़े-धाड़े भले ही दिखाई नहीं देते हों, पर बिना बैनर वाली गाडिय़ों की गिनती नहीं की जा सकती। महाविद्यालय के आसपास ऊंचे किराये पर भवन लिया जाता है जहां चौबीसों घण्टे रसोवड़े और मयखाने चलते हैं। वोट और सपोर्ट के लिए मान-मनुहार के साथ डराना-धमकाना, मारा-कूटे तक के उपाय अपनाए जाते हैं। यहां तक कि कोई किसी मजबूरीवश वोट डालने नहीं पहुंच सका तो उसे भी विरोधी मान लिया जाता है। और तो और सत्र शुरू होते ही और संभावित चुनावी तारीखों से कुछ समय पूर्व छात्र संगठनों और समूहों को इन संस्थानों की कमियां दिखने लगती हैं जिसमें पानी-पेशाब की अव्यवस्थाओं से लेकर प्राध्यापकों की कमी और जर्जर भवन तक नजर आने लगते हैं। इन्हें दुरुस्त करवाने के लिए टायर पुतले जलाने से लेकर मुख्य दरवाजों पर ताला जडऩे तक की ध्यानाकर्षणीय करतूतों को अंजाम दिया जाता है। जेएम लिंगदोह रिपोर्ट की पीठ पीछे सभी कुछ के साथ चुनावों की रस्म अदायगी हो लेती है। परिणाम आने के बाद कुछ मारा-कूटा, बदला लेने और सबक सिखाने के बहाने हो लेता है। छात्रसंघ कार्यालय के नाम पर संस्थान भवन में किसी कमरे या हॉल पर ताला लगाने का हक हासिल कर लिया जाता है। कहते हैं जिसमें ऐसा सब होता है कि यदि उस छात्रसंघ कार्यालय में सीसी टीवी कैमरा लगा हो और सुचारु हो तो उसके फुटेज देखने के लिए अलग तरह की मन:स्थिति की जरूरत होती है।
छात्रसंघों के चुनाव शुरू तो इसलिए हुए थे कि हमारे विद्यार्थी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से वाकिफ और शिक्षित हों, देश और प्रदेश की राजनीति को सुलझे-समझे नेता-जनप्रतिनिधि हासिल हो सकें। देश और प्रदेशों में आज के प्रथम पंक्ति के नेताओं में कई छात्रसंघ की राजनीति से बन-ठनकर आए मिल जाएंगे। लेकिन लोक में कैबत है कि 'घाण ही बिगड़ा' हुआ हो तो उसका बना मिष्ठान स्वादिष्ट कैसे होगा।
खैर, उम्मीद की जानी चाहिए कि इन चुनावों में लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों का दिखावे जैसा ही सही थोड़ा बहुत ध्यान रखा ही जायेगा। स्थानीय प्रशासन से अधिक संस्थान प्रशासन की सांसें इन चुनावों में ज्यादा अटकी इसलिए रहती हैं कि स्थानीय प्रशासन चुनावी प्रक्रिया के दौरान संस्थान प्रशासन की ढेबरी तो कस के रखता ही हैऔर कुछ हो जाए तो हड़काता भी है।

18 अगस्त, 2014

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