Monday, August 11, 2014

नागरिक और दूसरे तरह के सम्मानों की जरूरत ?

मीडिया के तीनों मोर्चों पर इन दिनों नागरिक सम्मानों को लेकर बहस, चर्चा और विश्वस्त-अविश्वस्त सूत्रों के नाम से अनुमान चल रहे हैं। इन नागरिक सम्मानों से समाज, राजनीति, साहित्य, कलाओं आदि में सेवारत लोगों को उनके दाय के आधार पर पद्मश्री से लेकर भारत रत्न से सम्मानित किया जाता रहा है। पिछली सदी के आठवें दशक में जब देश में पहली बार जनता पार्टी की गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो इन्हें बन्द कर दिया गया था लेकिन सरकार में कांग्रेस के लौटने के साथ ही 1980 से पुन: शुरू कर दिए गए। जो कई सरकारों के बदल जाने के बाद आज तक जारी हैं।
जब-जब भी नागरिक सम्मान सूची जारी की जाती है तब-तब उस सूची के अधिकांश नामों पर हायतौबा होती है या चुप्पी के साथ ही अंगुलियां रखी जाती हैं। सूची के साथ ही इन पुरस्कारों के लिए लॉबिंग की पटकथाएं भी तत्काल 'बाजार' में जाती है।
जिन युक्तियों-कथाओं के हवालों से भारतीय संस्कृति पर इतराने और आत्ममुग्ध होने तक में संयम नहीं बरतते  वालों ने उसमें इस तरह की 'दे और ले' (गिव एण्ड टेक) की गुंजाइश आजादी बाद के कर्ता-धर्ताओं ने कैसे निकाल ली आश्चर्य है। राजा थे महाराजा थे, क्राउन का शासन था तब वे अपने हाजरियों को इस तरह 'नवाजा' करते थे। इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किसी के सम्मान की घोषणा करने और बताते हुए इस फारसी शब्द 'नवाजा' का प्रयोग करते ये ध्यान ही नहीं देते कि इसका अर्थ- 'कृपा करना' होता है। राजे-महाराजे, बादशाह, नवाब और अंग्रेज शासक तो उपाधियां और पुरस्कार-कृपा स्वरूप ही देते थे।
दूसरों के लिए किया जाने वाला या कहें परार्थ सेवा के कार्य तथा किसी क्षेत्रविशेष में योगदान को भारतीय संस्कृति और परम्परा में ऋण मोचन माना गया है, यानी दूसरों के लिए कुछ भी कर सकने की क्षमता और योग्यता, जिस समाज से, पारिस्थितिकी से या कहें की इस चर-अचर जगत से हासिल कीं उसके आप ऋणी हो गये और इस ऋण से मुक्ति के लिए आप अपनी योग्यता और क्षमता अनुसार ऐसा कुछ उनके लिए करें जो अक्षम हैं या जिन्हें किसी कारणवश वह हासिल नहीं है जो आपको हासिल हो गया है। हो सकता है आज के 'भारतीय' इस स्थापना को मानें और तर्कों-कुतर्कों और शब्दावली बदल कर 'दे और ले' की पैरवी करने लगें।
बात नागरिक सम्मानों की थी, उसी पर लौट आते हैं। इन नागरिक सम्मानों की ही क्यों सभी तरह के पुरस्कार-सम्मानों के लिए की जानी वाली लॉबिंग और प्रक्रियाओं को थोड़ी बहुत सजगता से उघाडऩा शुरू करें तो असल आत्म-सम्मान वाले प्रत्येक को अरुचि हुए बिना नहीं रहेगी।
पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न सहित अन्य सभी तरह के शीर्ष-अर्धशीर्ष और अशीर्ष पुरस्कारों की बात करेंगे तो छीछालेदर कुछ ज्यादा ही हो जायेगी और होगा यह कि जिन सम्मान प्राप्तकर्ताओं को समाज का एक बड़ा तबका सचमुच पात्र मानता है, उनका बेवजह अपमान होगा। लेकिन खुद की आरती खुद उतारने की मिसाल  1971 में इन्दिरा गांधी द्वारा लिए गये भारत रत्न से शुरू हुई, आलोचनाओं में-वीवी गिरी, एमजी रामचन्द्रन, राजीव गांधी, मोरारजी देसाई को दिए गए भारत रत्न में राजनीति की बू महसूस की जाने लगी तो डॉ. भीमराव अम्बेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, गुलजारीलाल नन्दा, अरुणा आसफ अली, सी सुब्रमण्यम, जयप्रकाश नारायण, गोपीनाथ बोरदोलाई को भूल सुधार की तर्ज पर दिए गए भारत रत्न पुरस्कारों को उनका कद कम करने वाला माना गया।  इन दिनों सुभाषचन्द्र बोस, मदन मोहन मालवीय, और मेजर ध्यानचन्द को भारत रत्न दिए जाने की जो कवायद की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी है वह भी इनके कद को कम करना ही माना जायेगा। 2013 में सचिन तेंदुलकर और सीएनआर राव को दिए गए भारत रत्न की छीछालेदर कम नहीं हुई।
भारतीय संस्कृति का ढिंढोरा पीटने वाले ऋण-उऋण के तर्क पर इन सभी सम्मानों-पुरस्कारों को बन्द कर दें तो इन सबके लिए भद्दे-तरीके से बारह महीने चलने वाली 'इल प्रैक्टिस' से तो समाज को मुक्ति मिलेगी, हो सकता है ऐसे लोग भी कुछ सार्थक करने को प्रेरित हों। जिन्हें अच्छा करना है उन्हें किसी तरह के प्रोत्साहनों की जरूरत नहीं होती।

11 जुलाई, 2014

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