Wednesday, July 30, 2014

संवेदनाओं में पड़े आइठांण

सुबह-शाम के अखबारों में और चौबीस घण्टे चलने वाले टीवी के खबरिया चैनलों में समाचार जाग अवस्था में पढ़ते-देखते हैं तो कई या कह सकते हैं अधिकांश समाचार ऐसे होते हैं जिनमें सुकून महसूस नहीं कर सकते रोज-बरोज इनमें आंखें गड़ाए रखने वालों के सुकून भी भोथरे हो गए हैं। मनीषी डॉ. छगन मोहता तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व ऐसी अवस्था को संवेदना में आइठांण पडऩा कहते थे। राजस्थानी के इस आइठांण शब्द का हिन्दी में जोड़ शब्द नहीं मिला इसलिए इसे खोलकर बताना जरूरी हो गया है- शरीर का वह छोटा हिस्सा जो किसी रगड़क का लगातार शिकार होने से लगभग मृतप्राय हो जाता है, उस हिस्से पर कैसा भी प्रहार करो, महसूस नहीं होता उसी शारीरिक हिस्से को आइठांण कहा जाता है।
यह अखबार और खबरिया चैनल मनुष्य की संवेदनाओं में आइठांण बनाने का काम तो नहीं कर रहे हैं? अपने शहर की बात करें तो हफ्ते-दस दिन में कोई--कोई ऐसी घटना हो जाती है जिसमें कोई युवक किशोर किसी किसी दुर्घटना का शिकार हो कर अपने परिजनों और प्रियजनों में सून-सी छोड़ जाता है। चंूकि मौतें सामान्य नहीं होती तो खबर बनती है, छपती प्रसारित होती है। आदत से लाचार कहें या जागरूक नागरिक होने के वहम में इन्हें पढ़-सुन लेते हैं।
कल ही शहर में दो युवक सड़क दुर्घटनाओं में मारे गये। तीन दिन पहले एक किशोर तरणताल में डूबकर खत्म हो गया। यह घटनाएं तो हाल ही की हैं, सो याद है। पिछले एक वर्ष की स्मृति को टटोलेंगे तो ऐसे सैकड़ों वाकिए शहर के ही मिल जाएंगे। नहीं लगता कि जनता और प्रशासन की रोजमर्रा की कार्यशैली पर इसका कोई असर होता है। कहने को सड़कों पर चलने, चलाने के नियम कायदे बने हुए हैं, लेकिन कौन इन पर चलता है और कौन इन पर चलवाने के नियम कायदों पर खरे हैं।
इन दुर्घटनाओं को लेकर भी डॉ. छगन मोहता बहुत सामान्य, पर पते की बात कहा करते थे। उनके पुत्र डॉ. श्रीलाल मोहता ने पिछली सदी के आठवें दशक में लूना मोपेड ली तो डॉ. छगन मोहता ने पिता का धर्म निभाते उन्हें यातायात के नियम कायदों की हिदायत दी। डॉ. श्रीलाल मोहता ने सफाई दी कि वे तो नियम-कायदों का खयाल रखते हुए सावधानी से गाड़ी चलाते हैं। इस पर डॉ. छगन मोहता ने जवाब दिया कि ठीक है तुम तो सावचेती से चलाते होंगे लेकिन भिड़ंत हो इसके लिए यह भी जरूरी है कि सामने वाला भी ऐसी सभी सावधानियों का निर्वहन करें। इसीलिए दुर्घटना का शिकार होने से बचने के लिए स्वयं की सावचेती पर्याप्त नहीं है। दूसरे भी इस पर अमल करें यह जरूरी है।
इस भागम-भाग की जीवनशैली ने आत्मानुशासन की गुंजाइश लगभग खत्म कर दी है, प्रत्येक हड़बडिय़ा और उतावला होने को आतुर है। ऐसे में यातायात पुलिस और परिवहन विभाग की जिम्मेदारी बनती है कि वह सड़क मार्ग के यातायात को सुचारु रखे। क्या इतना भर मान लेने से समाधान हो जायेगा और दुर्घटनाएं रुक जायेंगी? यदि ऐसा मानते हैं तो भ्रमित हैं। इन महकमों में काम करने वाले भी इसी समाज का हिस्सा हैं और समाज की जीवनशैली से उनकी कार्यशैली अछूती रहे, यह संभव ही नहीं है। ड्यूटी के प्रति लापरवाही, रिश्वत लेकर नियम कायदों में शिथिलता देना और नेताओं और समर्थों के दबाव में आना सरकारी कारकुनों की आदत हो गया है।
इस उपरोक्त कौथिणै से लग सकता है कि जो कुछ हो रहा है वह लाइलाज है और इस सबको भुगतने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं है। ऐसा मान लेना भी अपनी संवेदना में पड़ गये आइठांण का ही और एक प्रमाण है। संवेदनाओं को बचाए रखना ही सुकून की अगवानी है अन्यथा अधिकांश तो अपने किसी परिजन-प्रियजन को खोकर भी नहीं सुधरतें।

30 जुलाई, 2014

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