Monday, July 28, 2014

शहर की समस्याएं, जरूरतें और हक

बीकानेर शहर की कुछ समस्याएं हैं तो कुछ जरूरतें। कुछ हक भी हैं जिन्हें शहर की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है। यह समस्याएं, जरूरतें और हक कुछ हरे हैं तो कुछ सूखने के कगार पर खड़े हैं। इन सबके लिए शहरियों के अलग-अलग समूह बनते हैं- थोड़ा सक्रिय होते है, ज्ञापन तैयार करते हैं, कलक्टरी पहुंच कर इनमें से अधिकांश सुस्ताने लगते हैं। ऐसे धरने, प्रदर्शनों और ज्ञापन देने वालों में कई नाम समान देखे जा सकते हैं।
शहर की मुख्य समस्याओं में कोटगेट और सांखला फाटक की समस्या है, जिसके समाधान में रेल बाइपास, रेल अण्डरब्रिज और ऐलीवेटेड रोड पर चर्चा होती रही है। दूसरी बड़ी समस्या शहर के अन्दर से गुजरने वाले भारी वाहनों की है जिसके समाधान के लिए जैसलमेर और नागौर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को जोडऩे के लिए बनने वाले सड़क बाइपास को पूरा करना है। तीसरी बड़ी समस्या सुजानदेसर-गंगाशहर क्षेत्र में चांदमल बाग में पनप रहा गंदे पानी का तालाब है जिसके समाधान के लिए सीवरेज ट्रीटमैंट प्लांट को प्रभावी रूप से सुचारु करना है।
शहर की महती जरूरत में गंगाशहर क्षेत्र की डिस्पेंसरी की सुविधाएं बढ़ा कर अस्पताल के रूप में उसे विकसित करने की है। इसके लिए एक अरसे से इस क्षेत्र के बाशिन्दे उक्त डिस्पेन्सरी को सैटेलाइट अस्पताल के रूप में मान्यता दिलवाने की मांग कर रहे हैं। इन सबके अलावा फैलते जा रहे इस शहर को सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की बड़ी आवश्यकता है। फिलहाल इस जरूरत की पूर्ति तिपहिया ऑटोरिक्शा वाले कर रहे हैं। ऑटोरिक्शा इस शहर में रोजगार का बड़ा साधन भी कहा जाता है। लगभग पांच हजार से ज्यादा लोग इसके माध्यम से अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं। चूंकि खुद इनमें आपसी स्पर्धा इतनी है कि अन्य शहरों की अपेक्षा इनके भाड़े की दरें यहां बहुत कम हैं। लेकिन यह ऑटोरिक्शा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की पूर्ति इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि साझे आधार पर ही इनका न्यूनतम किराया प्रति सवारी दस रुपये से कम नहीं है। इसे शहरी क्षेत्र के कमजोर वर्ग के लिए भारी कहा जा सकता है। अलावा इसके जरूरत के सभी गंतव्यों के लिए साझेदारी पर या कम दरों पर यह उपलब्ध नहीं होता। फिर भी इनकी दरें इतनी कम हैं कि सार्वजनिक परिवहन के लिए छोटी बस या नये चले चार पहिया छोटी गाडिय़ां सफल नहीं हो पा रही हैं।
एक अन्य, बड़ी समस्या यातायात व्यवस्था की है जिसके लिए यातायात पुलिस से ज्यादा शहर के बाशिन्दे और उनके नेता जिम्मेदार हैं। शहर की शायद ही कोई सड़क और फुटपाथ ऐसे होंगे जो अतिक्रमित हों, अलावा इसके जहां तक हमें पहुंचना है ठीक वहीं जाकर अपने वाहन को पार्क करने की इस हद तक इच्छा कि उसके लिए बेतरतीबी से भी परहेज नहीं करते। नेता और जनप्रतिनिधियों का हस्तक्षेप बिगड़ी यातायात व्यवस्था की कोढ़ में खाज का काम करता है।
रही बात हकों की, इन हकों का जिक्र करें तो एक फेहरिस्त बन सकती है- केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तकनीकी विश्वविद्यालय, कई गंतव्यों के लिए रेलगाडिय़ां, हवाई सेवा, मेगाफूड पार्क, टैक्स्टाइल पार्क, सिलिकॉन वेली, आदि-आदि। इनमें से कुछ को दूसरे शहर हथिया चुके हैं। माना जा रहा है कि सावचेत नहीं रहे तो या तो ये सब भी दूसरे हथिया लेंगे या यह योजनाएं और घोषणाएं ठण्डे बस्ते में चली जायेंगी।
समस्याओं, जरूरतों और हकों की चर्चा कर ली। इन पर थोड़ा इस तरह भी विचारें कि हमारे ये नेता और चुने हुए जनप्रतिनिधि उक्त सब के लिए सक्रिय हैं क्या? इसके अलावा यह भी कि उनमें उक्त सबको पार डलवाने की इच्छा या आपसी समन्वय है या दिखावे के लिए सिर्फ रस्म अदायगी करते हैं। सचमुच की इच्छाशक्ति और समन्वय होता तो सभी समस्याओं, जरूरतों और हकों का हल निकल गया होता। इतना ही नहीं जो कुछ हासिल किए हुए हैं यथा- विभिन्न सरकारी महाविद्यालय, विद्यालय, पीबीएम अस्पताल, डिस्पेन्सरियां, थाने, सड़कें, नालियां, रोड लाइटें, सीवरेज, जलदाय और विद्युत जैसी सभी सार्वजनिक सेवाएं क्या चाक चौबन्द हैं? ये हम क्यों भूल जाते हैं कि इन सब में दक्ष सेवाओं को प्राप्त करने का हमारा हक है, और यह हक हासिल नहीं है तो प्रशासन से ज्यादा हमारे नेता और जनप्रतिनिधि जिम्मेदार हैं।

28 जुलाई, 2014

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