Thursday, July 24, 2014

सांसदों का आचरण

गत 17 जुलाई को दिल्ली स्थित महाराष्ट्र सदन के भोजनालय में एक घटना घटीजिसमें शिवसेना के 11 सांसदों ने भोजनालय के प्रबन्धक से दुव्र्यवहार किया। पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि देश की राजधानी, नई दिल्ली में सभी प्रदेशों के एकाधिक ऐसे भवन हैं जिनमें केवल 'विशेषाधिकार' प्राप्त व्यक्तियों को ही सेवाएं दी जाती हैं। इनमें आवास और भोजन प्रमुख है। जिन प्रदेशीय सरकारों से प्रबन्ध नहीं हो पाया तो ऐसे भवनों में भोजन व्यवस्था रेलवे मंत्रालय के अधीन भारत सरकार के उपक्रम आइआरसीटीसी यानी इंडियन रेलवे केटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन लिमिटेड को सौंपी हुई है। भारत की संसद से लेकर प्रदेशों के कई भवनों, रेलवे स्टेशनों और राजधानी, शताब्दी और दूरन्तों जैसी रेलगाडिय़ों में भोजन की व्यवस्था यही कॉरपोरेशन करता है। और अकसर कई कारणों से यह सुर्खियों में भी रहता है। संसद और प्रदेशों के इन भवनों में यह सब सेवाएं इतने सब्सिडाइज्ड दरों पर उपलब्ध करवानी होती हैं कि शुल्कदर को सुनने भर से 'अच्छे दिनों का एहसास होने लगता है। जाहिर ही है कि इस घाटे की पूर्ति सरकारें जनता की गाढ़ी कमाई से हासिल राजस्व में से आइआरसीटीसी को अनुदान देकर करती हैं।
यह तो हुई आइआरसीटीसी की बात। इसकी व्यवस्था अच्छी होती तो 17 जुलाई वाली घटना ही नहीं होती। इसकी पुष्टि शिवसेना के सांसदों ने महाराष्ट्र सदन के भोजनालय प्रबन्धक पर पिल कर ही की है। भ्रष्टाचार और उसके उप उत्पाद-लापरवाही, अकर्मण्यता के चलते सार्वजनिक क्षेत्र की या कहें सरकारी क्षेत्र की सभी सेवाओं का हाल कमोबेश ऐसा ही है और इसके लिए मुख्य जिम्मेदारी देश की शासन व्यवस्था सम्भालते रहे ये नेता ही हैं। इसका वर्गीकरण इस बिना पर नहीं किया जा सकता कि इसकी जिम्मेदारी फलां पार्टी की है, फलां की नहीं। क्योंकि कमोबेश सभी राजनीति पार्टियों के नेताओं की चाल और चरित्र एक-सा ही है। शिवसेना के ये सभी सांसद इसी राजनीतिक जमात से आते हैं।
बात फिर घटनाविशेष पर ले आते हैं। शिवसेना का गठन सोच-समझ तौर तरीकों से संकीर्ण धार्मिकता और क्षेत्रीयतावाद पर किया गया जिनके आधार पर जनता को जल्दी भ्रमित किया जा सकता है। इस तरह यह पार्टी भाजपा और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से थोड़ी भिन्न है। संघ का गठन धर्म और राष्ट्र की उथली समझ के साथ किया गया जबकि शिवसेना के गठन का उद्देश्य ऐसी समझ का केवल राजनीतिक लाभ उठाना भर था अन्यथा इसके संस्थापक बाला साहब ठाकरे की व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवनचर्या में इतना अन्तर नहीं देखा जाता। उनके यहां धोक दे चुके प्रत्येक धर्म और क्षेत्र के व्यक्ति को पूरा स्नेह मिलता रहा है।
उक्त उल्लेखित घटना की इसलिए चर्चा हुई चूंकि महाराष्ट्र भवन के भोजनालय का प्रबन्धक मुसलमान है और इसलाम में पवित्र माने जाने वाले रमजान के इस माह में रोजा रखते हैं। खाना अच्छा नहीं था या रोटियां अच्छी नहीं थीं इसके लिए बकायदा वे रेलवे मंत्री से मिलकर नाराजगी जाहिर कर सकते थे, अभी सरकार भी राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन की है जिसमें शिवसेना खुद शामिल है। सांसदों को क्या यह शोभा देता है कि वे इस तरह का व्यवहार करें, वह भी तब जब सामने वाला रोजेदार हो? सभी जानते हैं कि रोजे में थूक भी नहीं निगला जाता बावजूद इसके इन सांसदों ने उस व्यक्ति के मुंह में रोटी ठूंसने की कोशिश की। हो सकता है वह प्रबन्धक अच्छा हो, यदि ऐसा है भी तो इसके लिए नियम-कायदे बने हुए हैं, और यह नियम-कायदे बनाने वाले भी ये सांसद ही हैं। ऐसे में अपने बनाए इन नियम-कायदों पर भरोसा करने की जिम्मेदारी भी इन्हीं की बनती है।
घटना के एक सप्ताह बाद कल के इण्डियन एक्सप्रेस में सचित्र खबर और उस घटना की वायरल हुई वीडियो क्लिप के बाद कल दिन भर खबरियां चैनलों और सोशल साइट्स पर इस घटना की छीछालेदर होती रही। आश्चर्य है कि खबरियां चैनलों पर भाजपा प्रवक्ताओं और ही शिवसेना प्रवक्ताओं के पास इस घटना पर देने के लिए कोई सफाई थी और ही कान में उतर सके ऐसा जवाब। सोशल साइट्स की तो बात ही अजब है- तमाम मोदीनिष्ठ लगता है सत्ता सुख का गूंगे के गुड़ के रूप में आनन्द ले रहे हैं-अशोक सिंघल, तोगडिय़ा और अब साथी शिवसेना सांसदों का रवैया इस देश की तासीर और भविष्य के लिए कितना माकूल है, विचारणीय है।

24 जुलाई, 2014

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