Tuesday, July 22, 2014

घाव करे गंभीर

खबरिया चैनल के पत्रकार और फेसबुक मित्र लक्ष्मण राघव ने सामान्य-सा समझा जा सकने वाला एक स्टेटस डाला- 'कमजोर के इरादे और नेता के वादे होते ही टूटने के लिए हैं जी!!! ' शुरू में चलताऊ से दिखने वाले इस स्टेटस से निकली चर्चा के किए गंभीर घाव का पता तब चला जब जिले में भाजपा बैनर से राजनीति करने वाले सुरेन्द्रसिंह शेखावत ने इसे दिल से लगा लिया। अपने पेशे की छवि के प्रति शेखावत की सावचेती काबिले तारीफ है। उन्हें इस बात पर ज्यादा एतराज था कि केवल नेताओं को ही क्यों भुंडाया जाता है। उनका तर्क था कि न्यायपालिका, अफसरशाही और पत्रकारिता से जुड़े लोग भी देश के इन बदतर हालात के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। इससे कोई इनकार नहीं है कि न्यायपालिका, अफसरशाही और पत्रकारिता भी इस बदतरी के लिए जिम्मेदार है लेकिन नेताओं के समान ही इन्हें जिम्मेदार मानना उचित नहीं होगा।
इसे समझने के लिए आजादी काल से अब तक की पड़ताल जरूरी है। न्यायपालिका और अफसरशाही आजादी के साथ विरासत में मिले, यहां तक कि अधिकांश कानून और प्रशासनिक ढांचा भी। उम्मीद तो यह थी कि इनमें आमूल बदलाव लाया जायेगा लेकिन जिन नेताओं ने शासन संभाला उनमें ऐसी इच्छाशक्ति तो दूर, वे अंग्रेजों के बनाए उस ढांचे में ही अनुकूलता देखने लगे। इसका एक कारण देश के बंटवारे के साथ ही भड़की हिंसा को भी माना जा सकता है। कुछ समय बाद जब हिंसा में कमी आई और शरणार्थियों के पुनर्वास की रूपरेखा लगभग बन गई थी, ऐसे में इच्छाशक्ति होती तो बदलाव सम्भव हो सकते थे। बदलाव इसलिए भी जरूरी थे कि अंग्रेजों ने दो सौ सालों में सभी तरह की व्यवस्थाओं का जो ढांचा खड़ा किया उसका मकसद एक उपनिवेश को चलाना भर था। पिछले छासठ वर्षों से हम इस आजाद देश को लगभग उसी व्यवस्था से चला रहे हैं।
यह तो हुई इतिहास की बातें। आजाद देश की इस शुरुआत को देखें तो समझ में जाएगा कि तब के नेताओं को जो जिम्मेदारी और इच्छाशक्ति दिखानी थी वह नहीं दिखाई। इस इतने बड़े देश की और इनके प्रदेशों की शासन व्यवस्था को चलाने के लिए नेताओं और जनप्रतिनिधियों के विशाल बेड़े की जरूरत थी, कमी भी नहीं थी। पूरे देश के चप्पे-कोने तक गांधी की जगाई अलख से नेतृत्व करने वालों की लम्बी-चौड़ी जमात तैयार थी। सभी सौ टंच हों इसकी उम्मीद बेमानी थी, हो सकता है इसमें से कई निजी बळत और छिपे स्वार्थों से वशीभूत हो शामिल हुए हों। सभी सौ टंच होते तो आज यह नौबत नहीं आती। धीरे-धीरे छेद खुलने लगे, दूसरे-तीसरे आम चुनावों तक इन नेताओं में अधिकांश शासन के आदी हो गये और इससे चिपके रहने के लिए वे शुरू में संकोच से और दबे-छिपे कबाड़ों में लिप्त हुए। न्यायपालिका और अफसरशाही का बड़ा हिस्सा आजादी से पहले भी अंग्रेज शासकों के लिए अनुकूलता बनाने का काम करते थे, आजादी बाद इन नेताओं के लिए करने लगे। अफसरशाही या कहें प्रशासनिक ढांचे ने धीमे-धीमे इसके लिए अनुकूल धारणा यह बनानी शुरू की कि बिना भ्रष्टाचार के कुछ भी संभव नहीं है। इसमें वे इतने सफल हुए कि अब तो यह सब बेधड़क होने लगा। नेता यदि सौ टंच होते तो पुराने ढांचे में भी इतनी गुंजाइश नहीं थी कि इतनी बदतर स्थितियां बनती। अपने इधर कहावत है कि 'दूल्हे के मुंह से लार टपक रही हो तो, बराती बेचारे क्या करें।' नेता बेईमान नहीं होते तो इतनी बुरी स्थितियां नहीं होती। आम-आवाम ने आजादी बाद देश नेताओं को ही सौंपा था, न्यायपालिका और अफसरशाही को नहीं। यह दोनों व्यवस्थाएं तो आम-आवाम के लिए है जिन्हें परोटने का काम जनता ने नेताओं को दिया हुआ है।
अब रही बात पत्रकारिता की। 'विनायक' आईना दिखाने के साथ-साथ खुद अपना चेहरा भी अकसर उसमें देखता है। पिछले आलेखों पर नज़र डालेंगे तो कुछ नहीं बहुतों में खुद को हड़काते देख सकते हैं। आजादी बाद या कहें आठवें दशक के बाद इस पेशे में जो पीढ़ी आई या कहें जो बड़े घराने आए उनके मकसद वह नहीं रहे जो आजादी के पहले के पत्रकारिता उसके समूहों के थे। इसीलिए सुरेन्द्रसिंह शेखावत के लांछनों से पूरी तरह बरी नहीं हो सकते। अब तो हालात और भी चिन्ताजनक हैं, संस्करणों और खबरियां चैनलों की बाढ़ में बहकर ऐसे-ऐसे पत्रकार हो गये हैं जिन्हें तो इसके उद्देश्यों का ज्ञान है और ही इतिहास का। मानवीयता क्या है इसकी उम्मीद तो दूर की बात है। इनमें से अधिकांश अपने रोजगार के दबाव में आकाओं के इशारों का ध्यान रखने वाले हैं। स्वाभिमान की जगह हेकड़ी ने ले ली है, क्योंकि यह मान लिया गया है कि इस पेशे में सफल वही है जिसके पास हेकड़ी है। लेकिन इस हेकड़ी को झरते आप अफसरों और न्यायाधीशों के चेम्बरों में अकसर देख सकते हैं बशर्ते वहां सीसी टीवी कैमरे लगे हों। पत्रकारिता में आई ऐसी खेप के चलते ही केवल नेताओं के लिए बल्कि अफसरशाही और न्यायपालिका के लिए अनुकूलता बनी बल्कि कइयों को इनके सहयोगियों या कहें साझीदारों के रूप में भी देख-समझ सकते हैं।
हो सकता है सुरेन्द्रसिंह शेखावत को अब खुद को 'अलीबाबा' की जमात का समझने में गुरेज नहीं होगा, शेष सब को भले ही चालीस चोरों में मान लें। 'विनायक' का मानना है कि नेता ईमानदार या सौ टंच हो जाएं तो अफसरशाही और न्यायपालिका तो क्या ये मीडिया हाउस भी उनसे सकपकाने लगेंगे। सचमुच के अच्छे दिन ऐसे ही सकते हैं। कांग्रेस की तर्ज पर उससे बढ़कर देश को भ्रमित कर सत्ता हासिल करना आसान है, आम-आवाम को सुकून नेताओं के ईमानदार हुए बिना नामुमकिन है।

22 जुलाई, 2014

No comments: