Thursday, June 12, 2014

पानी की दुरगत

शहर में इन दिनों पैंतालीस-छियालीस-सैंतालीस तापमान है, जून का महीना है तो इस रेगिस्तानी क्षेत्र में पारे की इतनी ऊंचाई तो बनती ही है। इस माह में थोड़े बहुत कम-ज्यादा के साथ तापमान प्रतिवर्ष यही रहता आया है। ये दीगर है कि ज्यों-ज्यों रेगिस्तान सिमट रहा है त्यों-त्यों तापमान पर लगाम लगाने वाली आंधिया जरूर कम हो गयी हैं। अन्यथा होता यही था कि ज्यों ही पारा चौवालीस-पैंतालीस से ऊपर चढऩे को होता कि बचाव के लिए रेत अपनी जमीन छोड़कर आसमान में छा जाती, पर जब रेत को रेत रहने ही नहीं दिया जा रहा तो सूरज के ताप को बर्दाश्त करना ही होगा।
यह मीडिया भी इस गर्मी पर कहर कम नहीं ढहाता है। मौसम है तो अपनी समयसारिणी अनुसार आएगा ही, मीडिया फट से सुर्खियां लगा देगा कि 'गर्मी का कहर' क्यों भई कहर क्यों, 'गर्मी परवान पर' क्यों नहीं। मनुष्य की तमाम कुचरनियों के बावजूद जब मौसम अपना धर्म निभाने से बाज नहीं आता तो थोड़ा तापमान के बढ़ते ही असहज होकर धर्मच्युत जुमले क्यों उछालने लगते हो?
खैर। आज के अखबारों में नगर निगम के अग्निशमन वाहन के फोटो छपे हैं। दो-एक दिन पूर्व राजस्थान के किसी शहर में गर्मी से राहत के लिए आग बुझाने वाले इन वाहनों के सड़कों पर पानी डालते फोटो छपे थे, फिर यह  शहर क्यों पीछे रहता। अब निगम वालों को कोई यह पूछने से रहा कि दो-चार सड़कों को भिगो भी दोगे तो इससे होगा क्या? तर्क यह कि जिन सड़कों के इर्द-गिर्द पेड़ नहीं हैं उन्हें पानी से ठण्डा किया जायेगा। बरसाती मौसम में देखते-समझते आएं हैं कि गरमी के बाद की पहली-दूसरी बारिश के बाद ऊमस में घण्टों बेहाल रहना पड़ता है, दो-तीन अच्छी बारिश होने के बाद वैसी ऊमस से राहत तब मिलती है जब मई-जून में तपी जमीन का ताप कुछ कम हो जाता है। ऐसे में दमकल गाडिय़ों का दो-चार हजार लीटर पानी वह भी शहर की गिनी-चुनी सड़कों पर क्या धन-धन कर लेगा। महात्मा गांधी रोड के दुकानदारों और तत्काल बाद वहां से गुजरने वालों से जाकर पूछ तो आओ कि कल उस छिड़काव के बाद उमस से आहत हुए थे कि गरमी से राहत मिली थी। वैसे भी इन सड़कों पर आजकल नियमित झाडू नहीं निकलती, किनारे की नालियां कीचड़ और पॉलिथीन-प्लास्टिक से अटी पड़ी होती हैं। ऐसे में कुछ अन्य तरह की दिक्कतें बढ़ी ही होंगी।
हमारा शहर और जिला प्रकृति के जिस भू-भाग में है, वहां के बारे में किंवदंती यह है कि मांगने पर घड़ा घी देने से नहीं हिचकेंगे पर लोटा भर पानी मांगने पर लोटे को खुद ही परोटेंगे, आपके हाथों में नहीं देंगे। यानी पानी को सहेजना जानने वाले हमारे माईत पानी की कीमत जानते थे। मुहल्ले में अस्सी-नब्बे की कोई महिला हो तो पूछ लें जब पानी कुएं से या तालाब से लाना होता तब वे पानी को कैसे परोटती थीं, बताएंगी कि परात में बैठ कर नहाना, फिर उसी पानी से कपड़े धोना और तीसरे क्रम में पोछा लगाकर कमठाणे में या कहीं और उपयोग नहीं तो घर के आगे छिड़कना। यही थी पानी की कद्र। जब से पानी मशीनों से खींचकर घर तक पहुंचाया जाने लगा है तब से उसकी जो बेकद्री हुई है यह उसी का परिणाम है कि थोड़ी कमी से त्राहिमाम् करने लगते हैं। तालाबों का अस्तित्व हमने खत्म कर दिया। कुओं से अनाप-शनाप खींचकर जलस्तर की पेंदी और नीचे जाने दे रहे हैं तो कहीं उसे बेपेंदी कर बैठे हैं।
ज्ञान देने वाले कह सकते हैं कि दो-चार दमकल का पानी यदि बचा भी लेंगे तो इससे पानी के संकट में क्या कारी लग जानी है। सही भी है केवल ऐसी प्रतीकात्मक मितव्ययिता के उपायों से कुछ होना-जाना नहीं है। बात पानी के साथ सामाजिक बरताव को बदलने की है। नहीं बदलेंगे तो जापान का उदाहरण समझ लो- दुनिया के विकसित देशों में गिने जाने वाले देश के घरों में सामान्यत: स्नानघर नहीं होते, वहां के लोग हफ्ते-दस दिन में मोटी रकम देकर सार्वजनिक हमामों में नहाकर आते हैं। इस तरह से रोज नहाना उन्हें भी नहीं पोसाता। बरताव नहीं सुधारेंगे तो वे दिन ज्यादा दूर की नहीं, इसी पीढ़ी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी को ऐसा देखना होगा। राजस्थान के चालीस प्रतिशत भू-भाग के सभी कुएं सूख चुके हैं। पानी की यह दुरगति आगामी पीढिय़ों के लिए दुरगतियों को ही न्योतना है।
पुनश्च:, पिछले छह साल से कभी पांच-पांच ट्यूबवेलों को तो कभी नहरी पानी को चौबीसों घण्टे चलाकर भी सूरसागर को एक बार भी चार फीट नहीं भर सके हैं। पानी की इस घोर बरबादी पर शहरवासी कब बोलना शुरू करेंगे?

12 जून, 2014

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