Monday, May 5, 2014

सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की गत

प्रदेश का स्कूली शिक्षा विभाग स्कूल एकीकरण योजना को लेकर पिछले कुछ दिनों से सुर्खियों में है तो स्थानीय स्तर पर यह महकमा इसलिए चर्चा में है कि इस संभागीय मुख्यालय पर शिक्षा उपनिदेशक का कार्यालय जल्द सुचारु होना चाहिए। पिछली सरकार ने आदेश कर दिया तो कई दिन इसलिए चर्चा में रहा कि चूरू से रिकार्ड कब आयेगा? आने लगा तो कैसे आयेगा और गया तो कैसे, कहां काम करेगा।
पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक से राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते राजस्थान की स्कूली शिक्षा पटरी से उतरने लगी थी। सरकारी स्कूलों की गिरती प्रतिष्ठा और इसी के चलते अभिभावकों में बच्चों को इन स्कूलों में भेजने का आकर्षण कम होने लगा। समाज सेवा में लगे कुछ समूहों, न्यासों के स्कूल फलने फूलने लगे। प्रतिष्ठित सरकारी स्कूल गायब-से होते गये तो अभिभावक अपने बच्चों को निजी संस्थानों और न्यासों द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों में भरती कराने लगे। ऐसे स्कूलों में कुछ तो असल संस्थाओं द्वारा चलाए जाते थे तो यह वही दौर था जब कुछ व्यावसायिक किस्म के लोग छद्म संस्थाएं और न्यास गठित कर शिक्षा का धंधा ही करने लगे। पिछली सदी के अंत तक अनुदानित स्कूल श्रेणी की मान्यता मिल जाती थी सो ये संस्थाएं अपने यहां अनुदानित पद भी ले आतीं। कुछ सही संस्थाएं नियमानुसार पूरा वेतन देती, कुछ-कम वेतन देकर पूरे पर हस्ताक्षर करवाती। ऐसे अनुदानित पदों का समायोजन सरकारी शिक्षण संस्थानों में होने के बाद बहुत से गड़बड़झाले बन्द हुए तो कुछ नये तरीके के शुरू हो लिये।
ऐसा सब होने के बीच हम में से अधिकांश अपने इस हक के प्रति लापरवाह रहे। ये सरकारी अनुदानित शिक्षण संस्थान उस धन से चलते थे और हैं जो राजस्व के रूप में देश के प्रत्येक नागरिक से विभिन्न परोक्ष-अपरोक्ष तरीकों से वसूला जाता है और इस धन से चलने वाली शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी दक्ष सेवाओं को हासिल करना हमारा हक है। यदि ऐसी जागरूकता होती तो सरकारी स्कूल, कॉलेज इस गत को प्राप्त होते और स्वास्थ्य सेवाओं का हश्र ऐसा होता।
इन दोनों ही सेवाओं का हाल अब क्या है किसी से छुपा नहीं। बावजूद इसके प्रत्येक नागरिक की जेब से परोक्ष-अपरोक्ष रूप से होने वाली राजस्व वसूली कम होने की बजाय बढ़ी है। निजी क्षेत्र की शिक्षा और स्वास्थ्य की दुकानें लगातार बढ़ती जा रही हैं, शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों और अन्य कार्मिकों की तनख्वाह सरकारी समान पद पर कार्यरत से एक-चौथाई से भी कम दिये जाने और कम दक्ष और अप्रशिक्षित कार्मिकों के बाद भी समाज अपने बच्चों को वहां भेजने पर इसलिए मजबूर है कि अधिकांश सरकारी शिक्षण संस्थाओं में पढऩे-पढ़ाने का माहौल इस कदर समाप्त हो गया कि लगता ही नहीं इन संस्थानों का शैक्षिक वैभव वापस कभी लौटेगा भी।
'विनायक' मानता है कि समाज के साथ-साथ इस क्षरण के लिए मीडिया भी दोषी है। खासकर अखबारी मीडिया। क्योंकि खबरिया चैनल आए तब तक पूरी व्यवस्था का बंटाधार हो चुका था। पिछले चालीस वर्षों की स्मृति को पलटें तो याद नहीं पड़ता कि अखबारों ने सार्वजनिक क्षेत्र की बद से बदतर होती शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं की कमतरी पर अपने पाठकों को सचेत किया हो। अब तो हाल और बुरे हैं। उद्देश्यहीन होती जा रही पत्रकारिता निजी क्षेत्र के संस्थानों को उनकी तमाम कमियों को नजरअंदाज कर प्रतिष्ठा देती है और सरकारी संस्थानों का बेड़ा गर्क करने में लगे नेताओं को वाहवाही और उनके हितों को आवाज। कोई भी अखबार इस तरह की खबर नहीं बनाता कि किस स्कूल में अध्यापक और कार्मिक समय पर नहीं पहुंचे या पहुंचे ही नहीं, पहुंचे तो मन लगाकर विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं या नहीं। पुस्तकालय तथा अन्य शैक्षणिक गतिविधियां सुचारु हैं या नहीं, नहीं है तो क्यों नहीं है। इन सब के प्रति क्षेत्रवासी जागरूक नहीं हैं तो उन्हें जागरूक क्यों होना चाहिए। ऐसी भूमिका निभा पाने की अपनी कमी को 'विनायक' भी विनम्रता से स्वीकारता है और यह कह कर छूट नहीं ले सकता कि उसके पास साधन बहुत सीमित हैं।

5 मई, 2014

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