Friday, May 30, 2014

आत्मावलोकन से बचती कांग्रेस

कांगे्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को जोकर बताने वाले केरल के पूर्व मंत्री टीएच मुस्तफा को पार्टी ने निलंबित कर दिया गया है, उन्होंने यह भी कहा था कि चुनावों में हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल यदि पद नहीं छोड़ते हैं तो उन्हें हटा देना चाहिए। केरल उन प्रदेशों में से है जिसने इन आम चुनावों में पार्टी की जैसी-कैसी भी नाक बचाए रखी। जाहिर होता है कि इसका श्रेय संप्रग की केन्द्र सरकार को है और ही राहुल-सोनिया नीत पार्टी की राष्ट्रीय इकाई को। दक्षिण में देखा गया है कि अधिकांशत: किसी क्षत्रप की छाया में राजनीति होती है पर केरल इससे भिन्न है। वहां लम्बे समय से कांग्रेस की गठबंधन सरकारें रही हैं और उनका हासिल उनका अपना और सामूहिक होता है। पार्टी की केन्द्रीय इकाई की भूमिका यहां वैसी नहीं रहती जैसी हिन्दी भाषी राज्यों में होती है। यही वजह है कि वहां के टीएच मुस्तफा 'कोठे आळी होंठे' लाने में संकोच नहीं करते। मुस्तफा ने उन सैकड़ों वरिष्ठ कांग्रेसियों की सोच को आवाज देने की कोशिश की जिसे कहना चाहकर भी कई प्रकार की आशंकाओं के चलते वे साहस नहीं जुटा पाते। अंग्रेजी के जोक से बने जोकर शब्द की जगह मुस्तफा अपनी बात कहने के लिए कोई शालीन समझी जाने वाली शब्दावली को काम में लेते तो पार्टी के हित में होता। वैसे भी राहुल के व्यक्तित्व और हाव-भाव को देखें तो वे इस विशेषण के भी योग्य नहीं लगते, जोकराई के लिए भी बुद्धिमत्ता और सूचनाओं से अद्यतन होने की जरूरत होती है।
कांग्रेस को संभवत: लगता है कि बिना नेहरू-गांधी परिवार की बैसाखी के उनका अस्तित्व बना नहीं रह सकता। पिछली सदी के सातवें दशक के अंत से इतिहास इसकी पुष्टि भी करता है। सातवें और आठवें दशक की टूटतों के बाद जनता ने कांग्रेस की उसी टूटत को भाव दिए जिसका नेतृत्व इन्दिरा गांधी करती थीं, संभवत इसी अनुभव के आधार पर पिछली सदी के अन्त में जब राजग ने सरकार बना ली और नरसिम्हा राव के बाद कांग्रेस फर्श पर दिखी तो कांग्रेसी फिर सोनिया के मुखातिब हुए। 2004 में जनता ने जैसा-तैसा भी भरोसा जताकर इसकी पुष्टि भी कर दी। लेकिन सोनिया की ढकी इसलिए रह गई कि उसका मौन उसके किए-धरे को आड़ देता रहा और आम-आवाम सोनिया की मुखरहीनता के अपने-अपने भाव लगाता रहा। राहुल ज्यों-ज्यों मुखर होते गये अपना आपा देते गए। जिन जरूरी बातों का जवाब जनता को चाहिए, उनकी जगह वे कुछ और परोसते गये। जनता से संवाद बनाने की संभवत: उनमें क्षमता ही नहीं है। आम-आवाम में रहे ही कब, सुख-सुविधाओं और सुरक्षा में जन्में-पले, बढ़े, बाहर भी निकले तो सीमित लोगों के साथ गाडिय़ों में, कुछ सीखते कहां से? इनसे तो इनके पिता राजीव इस मानी में तो ठीक थे कि उन्होंने पायलट की नौकरी जब तक की उसे सामान्य पायलट की भांति ही अंजाम दिया, बहुत ज्यादा सही, फिर भी दूसरों के साथ उनका संवाद राहुल की तरह चाक-चौबन्दी का नहीं था।
कांग्रेस को अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो एक लोकतांत्रिक और खुली सोच का संगठन विकसित करना होगा। प्रियंका की ओर उनकी टकटकी फिर कभी उन्हें ऐसी ही स्थितियों में ला छोड़ेगी। प्रियंका राहुल से चतुर हो सकती हैं, पर दोनों की परवरिश में कोई बड़ा अंतर नहीं है। कांग्रेस यदि नेहरू-गांधी परिवार की बैसाखियों के बिना एक लोकतांत्रिक ढांचे को विकसित करेगी तो ही लम्बे समय तक अस्तित्व बनाए रख पाएगी। इससे इस लोकतांत्रिक देश को बड़ा लाभ यह होगा कि यहां आंतरिक लोकतंत्र वाली पार्टियों के विकास की शुरुआत होगी जो इसकी असल जड़ों को मजबूत करेगा। जानते हैं तुरत-फुरत सबकुछ या कुछ हासिल करने की प्रवृत्ति ऐसी बातों पर कान और मान दोनों ही नहीं देगी।

30 मई, 2014

No comments: