पिछली सदी के नवें
दशक के मध्य की बात है, 1984 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने देश से दो सपने साझा किए-पहला देश को इक्कीसवीं
सदी में ले जाने का अमूर्त सपना और दूसरा, देश में कम्प्यूटर क्रान्ति लाना। इक्कीसवीं सदी में तो देश
को जाना ही था, क्योंकि समय राजीव तो क्या
किसी के भी बस में नहीं है। लेकिन विरोध के बावजूद उन्होंने देश में कम्प्यूटर युग का सूत्रपात किया वह बदस्तूर जारी है। विरोध पर चर्चा और बहस की गुंजाइश कभी खत्म नहीं होती, जो कभी
और की जा सकती है।
इस सबका
उल्लेख आज इसलिए करना पड़ा कि बीकानेर के बाशिन्दों को कम्प्यूटर जैसे उपकरण से वाकिफ कराने वाले प्रकाश पारख का कल निधन हो गया। बात 1985 की है, नये व्यवसाय की तलाश
में अमेरिका गये शहर के समर्थ और समृद्ध परिवार के प्रकाश पारख बीकानेर लौटे तो उनके साथ अटैचीनुमा बक्सा था, ऐसा तिलस्मी बक्सा जो खुलने
पर तीन हिस्सों-सीपीयू, मोनिटर
और की-बोर्ड में बंट जाता था। इसे काम में लेने का प्रशिक्षण
भी वे अमेरिका से लेकर आए थे। शहर के भीतरी डागा-सेठिया-पारख
चौक के अपने हवेलीनुमा घर के संभवत सबसे छोटे कमरे में उन्होंने एयरकंडिशनर लगवाया, टेबल कुर्सी व फर्नीचर
लगा, पहले अपने परिचितों को और फिर जो भी सम्पर्क में आया उसे घर बुलाते और किसी-किसी को साथ
ले जाकर बड़े उत्साह से अपने उस तिलिस्मी ओरे (छोटे कमरे) में
ले जाते। कम्प्यूटर के बारे में विस्तार से बताते और हर एक की मौसमानुकूल आवभगत भी करते।
'टेलीवीडियो पोर्टेबल पीसी' कहलाने वाले उस कम्प्यूटर
के साथ पारख प्रिन्टआउट लेने के लिए ओकिडाटा डॉटमैट्रिक प्रिन्टर भी लाए थे। पारख इतने उत्साही थे कि बिना सामने वाले की पात्रता परखे और बिना रुके कम्प्यूटर के तिलिस्म को पूरी तरह खोलने लग जाते-सीपीयू, मोनीटर,
की-बोर्ड, ओकिडाटा डॉटमैट्रिक प्रिन्टर से वे
शुरू होते तो बाद के कुछ वर्षों में, रेम,
लेन, मेगाबाइट, गीगाबाइट जैसे शब्दों के बखान
से कइयों के हाइगोल होता तो सुनते-सुनते कइयों की समझ
के फाटक फटाक से बन्द हो जाते इस नये ज्ञान को बांटने की उनकी शैली से आतंकित हुए कई तो पास फटकने से बचते भी रहते।
1987
में पारख ने कोटगेट के सट्टा बाजार में व्यवस्थित प्रशिक्षण केन्द्र की शुरुआत की, बीकानेर की नई
पीढ़ी को उन्होंने कम्प्यूटर के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों से वाकफीयत करवाई। खाता-बही संधारण से लेकर
ज्योतिषीय विधा की जन्मपत्रियां बनाने के काम को बढ़ाया, बीकानेर के वे
व्यापारी जिनके खाता-बहियों के काम
का बड़ा उलझाड़ था और वे ज्योतिषी जिन्हें जन्मपत्री बनाने की गणना में कई-कई दिन
लग जाते थे, वही काम कम्प्यूटरों के माध्यम
से मिनटों में होता देख चमत्कृत हुए बिना नहीं रहते। होमियोपैथी की डॉक्टरी करने वालों को भी इस कम्प्यूटर के माध्यम से पारख ने मिनटों में केसस्टडी को अंजाम तक पहुंचाने की युक्ति सुझाई तो प्रिंटिंग प्रेसों को शीशे के अक्षरों और मात्राओं को एक-एक कर
जोडऩे की पेचीदा कवायद से राहत का रास्ता भी इन कम्प्यूटरों के माध्यम से दिखाया। पारख ने उक्त सब 1990 आने तक तक शहर में संभव करवा दिया था।
इसी दौरान 1987 में
पारख ने अपने पुत्र देवेन्द्र पारख को कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में उच्च अध्ययन के लिए अमेरिका भेजा, वे
1990 में लौट कर आए और सॉफ्टवेयर डवलपिंग का काम बड़े पैमाने पर शुरू किया। फिर अपने काम को उन्होंने महात्मा गांधी रोड पर बने बड़े और नये भवन में स्थानांतरित किया। बीच में काम के लिए देवेन्द्र अमेरिका चले गये। लौटकर आए तो यहां कई तरह के अभावों के चलते देवेन्द्र ने पहले अपना कार्यक्षेत्र जयपुर को बनाया, वहां से संतुष्ट
नहीं हुए तो पिछले लम्बे समय से अहमदाबाद से काम कर रहे हैं। लेकिन प्रकाश पारख यहीं जमे रहे और यहां के युवाओं को मार्गदर्शन और काम देते रहे। यह प्रकाश पारख की ही देन मानी जाएगी कि दुनिया में सॉफ्टवेयर डवलपिंग के नक्शे में बीकानेर लगातार टिमटिमाता रहता है।
26 मई,
2014
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