Thursday, May 22, 2014

जाति या वर्गीय आग्रहों से मुक्ति का एहसास

कहने को तो कहा जा सकता है कि सांप निकलने के बाद लीक पीटी जा रही है, पर चुनाव परिणामों में रहे रुझानों का विश्लेषण लीक पीटना नहीं है। हर घटित का विश्लेषण मनुष्य की फितरत रही है, तो फिर लोकतन्त्री-समय के सबसे बड़े अनुष्ठान का विश्लेषण क्यों हो? अखबार और खबरिया चैनलों पर छिटपुट तौर पर ही सही लगभग रोज ही चुनावी रुझानों के बदलने की चर्चा सुन-पढ़ रहे हैं। इन चुनाव परिणामों को लेकर सुखद एहसास से सराबोर विश्लेषण यह है कि एक अरसे से धर्म और जातीय आधार पर वोट करने की जो प्रवृत्ति विकसित होने लगी थी, इन चुनावों में धर्म और जातीयता या कहें वर्गीय आधार पर वोट करने की इस प्रवृत्ति में भारी बदलाव देख रहे हैं, क्या सच में ऐसा हुआ है? गहनता से देखने-समझने की कोशिश करेंगे तो हो सकता है गर्दन को दाएं-बाएं करने से नहीं चूकें।
भारतीय समाज में जातीय पहचान को उच्च वर्गों द्वारा हासिल किए जाने और निम्न वर्गों पर थोपी या चस्पा किए जाने का इतिहास मिलता है। कौन-सा सामाजिक कर्म जातीय या वर्गीय पहचान से अछूता है? ऐसे में राजनीति या वोट का मामला इस एहसास या पहचान से अलग होगा या हो रहा है, यह मानना अपने को भ्रमित करने से कम नहीं है। धर्म को एक बार दरकिनार कर देते हैं क्योंकि उसमें परिवर्तन की स्वतंत्रता हमेशा से फिर भी रही है। लेकिन गौर करें कि जाति व्यवस्था की यह चस्पाई ऐसी है कि यह पहचान धर्म में परिवर्तन के बावजूद कायम रहती है, तथाकथित हिन्दू यदि धर्मान्तरण के बाद मुसलिम, ईसाई, सिख बन गया तो भी जाति उसका पीछा नहीं छोड़ती। भारत में जातीय इतिहास की इस सचाई के बाद भी यह मानना कि इन चुनावी परिणामों के साथ भारतीय राजनीति का जाति या वर्ग मुक्त युग शुरू हो गया है, भारी भ्रम होगा। हां, यह मान सकते हैं कि इस बार जनता ने जाति और वर्गीय आग्रहों से थोड़ा ऊपर उठकर वोट किया है। लेकिन ऐसा तो पहली बार नहीं हुआ- 1977 में कम से कम पूरे उत्तर भारत के मतदाताओं ने 'वोट बैंक' की पहचान से हटकर वोट किया था। तब भी चुनावों के बाद के चुनाव विश्लेषकों ने ऐसे ही सुखद विश्लेषणों का एहसास करवाया था। लेकिन कितने महीने टिका रहा, केवल उखड़ा बल्कि उसके बाद की अब तक की राजनीति में जाति और वर्गीय आग्रह ज्यादा अनावृत हुए। लगता है मायावती दलितों की राजनीति करती है पर क्या सचमुच ऐसा है? उत्तरप्रदेश के जाटव बहुल क्षेत्र में उसकी निर्भरता जाटवों पर ही ज्यादा है। ऐसा नहीं होता तो उसे कभी ब्राह्मण और कभी मुसलिम वोटों को लुभाने के हथकंडे नहीं अपनाने पड़ते। मायावती के दलित आग्रहों को छोड़ भी दें तो समाजवादी कहे जाने वाले लालू और मुलायम का वोट बैंक आधार क्या है? पिछले पन्द्रह वर्षों में भाजपा की रणनीति का अवलोकन करें तो साफ समझ में आता है कि उसने कांग्रेस-पक्ष के जातीय वोट समूहों को एकमुश्त अपनी ओर करने में कोई कमी नहीं रखी। दक्षिण भारत में ऐसे एहसासों की जड़ें उत्तर भारत से कम गहरी नहीं हैं। राजस्थान के प्रभावी जाति समूह जाट समुदाय को मोहने का काम कांग्रेस और भाजपा बल पड़ते करते ही आए हैं।
यह चुनाव भी सन् 1977 की तरह कांग्रेस कुशासन से उपजे रोष की प्रतिक्रिया है और कहते हैं कि गुस्से में आदमी से विवेक छिटक जाता है, वैसे ही रोष में ये जाति या वर्गीय आग्रह कुछ समय के लिए छिटक भर गए हैं। कहते भी हैं गुस्सा और रोष दोनों भंगुरने में ज्यादा समय नहीं लेते। जाति या वर्ग मनुष्य पर कमजोरी के रूप में हावी है। अंतत: वह इस मूलरूप या पहचान में लौटता ही है।

22 मई, 2014

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