शहर में यातायात उपाधीक्षक को लगाए
हुए छ: माह से ज्यादा
हो गए हैं पर यह पद अभी तक आबाद नहीं हुआ है। पिछले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जाते-जाते ये नेमत
बीकानेर को बख्शी थी। गहलोत की इस घोषणा का तकनीकी विश्वविद्यालय की बजट घोषणा जैसा हश्र तो नहीं हुआ पर जिन महिला अधिकारी को यहां पहली पोस्टिंग दी गई वे बिना कुछ किए धरे ही लौट गईं। यातायात से सम्बन्धित शहरियों की उम्मीदें हरी होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। इस शहर में यातायात सम्बन्धी व्यवस्था पिछले पचीस-तीस सालों से नदारद
है। यातायात पुलिस को सक्रिय होते दो-तीन मौकों पर ही
देखा जाता है। एक तो किसी वीआइपी को कहीं से गुजरना हो तब, दूसरा, हेलमेट
न लगाने या कार चालक के बैल्ट न बांधने जैसे नियमों के उल्लंघन से सम्बन्धित जुर्माने का लक्ष्य पूरा करना हो, या फिर
मंथली उगाहियों के लक्ष्य हासिल करने के बिन्दुओं पर।
विनायक पहले भी कई
बार लिख चुका है कि शहर में यातायात से सम्बन्धित पुलिस व्यवस्था का अब कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। सिपाहियों की कमी तो एक बड़ा बहाना है ही, दूसरा हमारे यहां के सभी
नेता इन्हें कुछ करने देने से पहले ही टोक देने से 'कुएं में मांय जार पड़ो म्हारें भाव'
जैसा वाक्य इनका स्थाई जुमला बन गया है। जिले में निजी बसें चलाने वाले, ट्रकों-कैम्परों
के मालिक और ऑटोरिक्शाओं की यूनियनें इतनी समर्थ हैं कि यातायात पुलिस को ये कुछ गिनते ही नहीं हैं। कोई नया अधिकारी आकर कुछ करना भी चाहे तो प्रभावी राजनेताओं की भौंहें तन जाती है। हमारे यहां के नेता इतने आत्मविश्वासहीन हैं कि पुलिस महकमे की जायज टोका-टोकी को शिकायत
के रूप में प्रस्तुत करने आने वालों को सामान्य नियम कायदों को अपनाने की हिदायत तक नहीं दे सकते। इन नेताओं से शह पाए ऐसे दबंगों को पुलिस के सिपाहियों को कुत्ते की तरह दुत्कारते अक्सर देखा जा सकता है। ऐसे में पुलिस वालों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
इसी रविवार को नए
गजनेर रोड पर ट्रक-ट्रोले से कुचले
जाने से दो किशोरों की मौके पर ही मौत हो गई। श्रीगंगानगर रोड से जैसलमेर रोड तक बाइपास बनाने के बाद, नए गजनेर
रोड से भारी वाहनों को गुजारने का औचित्य समझ में नहीं आता। किसी भारी वाहन से यदि शहर में कुछ उतारना-चढ़ाना हो तो
रात्रि का कोई निर्जन समय और इन ट्रकों की गति सीमा तय होनी चाहिए। स्थानीय मालिकों के इन ट्रकों और निजी बसों आदि को नो एण्ट्री के समय गलत दिशा में तेज गति से धड़ल्ले से गुजरते और मुड़ते अक्सर देखा जा सकता है। इन्हें शह देने वालों को इससे कोई मतलब नहीं है कि उनकी इस हेकड़ी से कोई घर छिन्न-भिन्न हो सकता
है या किसी परिवार की पूरी जिन्दगी किसी टीस से ग्रसित हो सकती है।
शहर के अन्दरूनी
यातायात में अव्यवस्थित रूप से चलने वालों में मोटरसाइकिल चालक युवा तो हैं ही, ये ऑटोरिक्शा
वाले भी कम गड़बडिय़ां नहीं करते। इनकी यूनियनें गिरोह के रूप में काम करने लगी हैं और मासिक-वार्षिक शुल्क देने वाले टैक्सी चालकों के कुकृत्य
को आड़ देने में शर्म भी महसूस नहीं करते। पिछले बुधवार को ही एक निजी फर्म में काम करने वाले युवक के सिर को कुचलते हुए एक ऑटोचालक अपने ऑटोरिक्शा सहित ही दौड़ गया। वह युवक सिर के ऑपरेशन के बाद भी बच नहीं पाया। कल देर रात उसका भी देहान्त हो गया। क्या किसी टैक्सी यूनियन के ये दबंग पदाधिकारी इस युवक के परिजनों की सुध भी लेंगे? नहीं लेंगे। ऐसे सुध लेने लगें तो उनकी
खुशनुमा शामों में खलल जो पैदा हो जायेगा। सभी तरह के संघ, एसोसिएशन, मण्डल
और यूनियनों ने वाजिब अधिकारों की जगह व्यक्तिगत हेकडिय़ों को संरक्षण देना शुरू कर दिया है। ऐसे में कर्तव्य निभाने की बातें ही बेमानी हो गई। ऐसे समूहों को गिरोह नहीं तो भला और क्या कहा जायेगा?
8 अप्रेल,
2014
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