Monday, April 28, 2014

जबानी जमा-खर्च या सिर्फ लपा-लपी

दरअसल आजकल मीडिया वालों को भी शाया करने को ऐसे वक्तव्य चाहिए होते हैं, जिन पर विवाद हो या जिन्हें चटखारे लेकर पढ़ा-देखा जाय। सोलहवीं लोकसभा का चुनाव अपने अन्तिम दौर में है। सभी पार्टियों के सभी स्तर के अधिकांश नेता मानो इस होड़ में हैं कि किसके बयान को मीडिया ज्यादा स्थान देता है और किस बयान पर समकक्षी प्रतिद्वंद्वी कपड़ों से और ज्यादा बाहर जायेगा। हिन्दी क्षेत्र की बात करें तो उत्तरप्रदेश और बिहार की कुछ सीटों पर चुनाव होने से वहां के नेताओं के इस तरह के बयान देश के मीडिया में हालांकि कम स्थान पाते हैं पर वहां भी आजम खान और गिरिराज सिंह कुछ ऐसी जुगत बना ही लेते हैं कि उन्हें चर्चा मिल जाती है। बयान देने के बाद कहने को कह सकते हैं कि उनके बयान का मंतव्य या भाव पक्ष यह था जो व्याख्या की जा रही हैं वह नहीं। ऐसा हो भी सकता है पर क्या हम भूल जाते हैं कि भाषा और उसे कहने के लहजे की भी अपनी ताकत होती है। उस ताकत पर नियंत्रण क्या इसलिए छूट जाता है कि सामने दो-पांच, दस हजार का हुजूम आपके मुखातिब है। रामदेव जैसे तो एबीपी न्यूज के घोषणापत्र कार्यक्रम में तीन अंकों से भी कम लोगों की उपस्थिति में स्खलित हो गये। भाषा का मनोविज्ञान यह कहता है कि आप जिस मानसिकता से सोचते और अनौपचारिक बातचीत में जिस तरह अपने को अभिव्यक्त करते रहे हैं वह मानसिकता औपचारिक सम्बोधन में हलकी उत्तेजना से ही चौड़े जाती है। संभवत: इसीलिए हमारे यहां लोक में यह कैबत प्रचलित है कि 'कोठे आळी होठे आयां बिना रेवै कोनी' (यानी जैसी मन में, वैसी मुंह से)-रामदेव के मन में दलितों के प्रति क्या भाव हैं, उनके मुंह से अनायास ही कार्यक्रम शुरू होते ही बिना उत्तेजना के वह बाहर गया। रामदेव के लक्षित समूह में दलित पिछड़े हैं भी नहीं। कुछ हैं तो वही जो उनकी दुकान के ग्राहक हो सकते हैं अन्यथा उनके चकरिये में आने वाला तथाकथित उच्च या समर्थ वर्ग ही है, जिनके बूते वे ऐसे प्रलाप करते फिरते हैं।
मोदी और कश्मीर को लेकर हाल ही में फारूक अब्दुला के भी असंयत बयान आए जिनसे उन्हें बचना चाहिए था। हालांकि पिछले कई दशकों से कश्मीर पर संघ परिवार द्वारा जिस गैर तथ्यात्मक और संकुचित सोच से औपचारिक-अनौपचारिक तौर पर प्रचारित किया जा रहा है वह कश्मीर समस्या को बजाय कम करने के बढ़ा ही रहा है।
भाजपा और कांग्रेस के दिग्गज नरेन्द्र मोदी और सोनिया परिवार केवल लगातार एक दूसरे पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप मढऩे में मशगूल हैं बल्कि अपनी तरफ से दूसरे को इस व्यक्तिगत स्तर तक गिरने की हिदायत भी दे रहे हैं पर यह बंद दोनों तरफ से नहीं हो रहा है। बल्कि मोदी द्वारा फिक्स एबीपी न्यूज के घोषणापत्र कार्यक्रम में मोदी ने संवाद में विरोधाभास मिलने पर अपरोक्ष रूप से कह भी दिया कि जो पब्लिक मीटिंग में कहता हूं उसे गंभीरता से लिया जाए, जो यहां कह रहा हूं वह ही अधिकृत है। घोटालों और सार्वजनिक धन की लूट में दोनों ही पार्टियां पीछे नहीं हैं- कम-बेसी हैं तो अवसर कम-ज्यादा मिलने से है। वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने आज सोशल साइट पर प्रश्न उठाया कि अटलबिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो उनके दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य पर कांग्रेस ने खुद आरोप लगाए लेकिन दस साल के अपने इस शासन में रंजन के खिलाफ एक कागज इधर से उधर नहीं किया। इसी प्रकार पिछले विधानसभा चुनावों से सोनिया के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को लेकर भाजपा और नरेन्द्र मोदी खूब आरोप लगा रहे हैं। जमीन खरीद घोटालों के प्रदेश राजस्थान और हरियाणा बताए जा रहे हैं पर क्या भाजपा की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चार महीने के कार्यकाल में इन आरोपों की जांच पर एक कदम भी आगे बढ़ीं? थानवी ठीक ही कहते हैं, 'सत्तासीन केवल आंखें दिखाते हैं, बिगाड़ते कुछ नहीं-उलटे बचाते हैं। ताकि वक्त आने पर खुद भी बचे रहें। नूरा कुश्ती इसी को कहते हैं।' मतलब साफ है जनता को बेवकूफ बनाओ और अपना उल्लू सीधा करो।

28 अप्रेल, 2014

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