Friday, April 4, 2014

खबरिया चैनलों की समय कटाई और चुनावी सर्वेक्षणों की साख

लोकसभा या विधानसभाओं के चुनाव क्या आते हैं, टीवी के इन खबरिया चैनलों को 'राम' मिल जाता है अन्यथा अपने कार्यक्रमों को चौबीस घण्टे में तीन से चार बार दोहराने वालों का भी समय भरना मुश्किल हो जाता है। इन्हें भूत के टेलीफोन नम्बर बताने से लेकर स्वर्ग की सीढिय़ों तक की कथा घड़ के भी समय काटते देखा गया है। एसी क्लिप्स या चलचित्री समाचारों से समाज पर क्या असर होगा, इन्हें कोई परवाह नहीं। किसी भी कीमत पर इन्हें अपना अस्तित्व बचाए रखना होता है दूसरे या अन्य जाएं भाड़ में।
इस समय की बात करें तो पिछले छह महीने से इन खबरिया चैनलों का समय चुनावी चुहल में आसानी से कट रहा है। इनमें चर्चा, अनुमानों और चुनावी सर्वेक्षणों पर घण्टों ही लप्पा-लप्पी चलती रहती है। अपनी साख को लेकर सावचेत कुछ चैनल चर्चा के लिए जहां ठीक-ठाक और गंभीर लोगों को बुलाते हैं और सामाजिक, राजनीतिक मानवीय मूल्यों का कुछ लिहाज भी रखते हैं, पर अन्य अनेक चैनलों के चिन्ताजनक तथ्य सामने आने लगे हैं। सुना यह भी जा रहा है कि राजनीतिक पार्टियां चैनल की तासीर को ही अपने पक्ष में करने की डील करोड़ों में करने लगी हैं। यह कताई इतनी बारीक होती है कि अधिकांश नजरों के लिए इसे पकड़ पाना असम्भव होता है। अगर सचमुच ऐसा हो रहा है तो 'पेड न्यूज' पर अंकुश गया पानी लेने। जिन चैनलों का उद्देश्य मात्र सनसनी पैदा कर केवल टीआरपी बटोरना है वे इस तरह की चर्चाओं को 'अधजल गगरी छलकत जाय' किस्म के विद्वानों को ही बुलाते हैं। हाका ध्वनि में भरोसा रखने वाला चैनलों का एंकर पैनल में कई लोगों को इकठा कर लेता है और उन्हें आपस में गुत्थम-गुत्था कर और उनकी बातों के गड्ड-मड्ड हो जाने को खुद ही प्रेरित करता रहता है।
पिछले एक अरसे से होने वाले चुनावी सर्वेक्षण भी इन खबरिया चैनलों के लिए समय काटने का जरीया साबित हो रहे हैं। इन सर्वेक्षणों की महत्ता भी समय कटाई से ज्यादा साबित नहीं हो पा रही है बल्कि ज्योतिष विद्या के लिए सामान्यत: प्रयोग में आने वाली अंग्रेजी कहावत थ्योरि ऑफ प्रोबेबिलिटी (संभावना सिद्धान्त, जिसमें यह माना जाता है कि सौ सिक्के उछालें तो आधे सीधे गिरेंगे और आधे उलटे) भी इन पर शायद ही लागू हो। कुछ लोगों का तो मानना है कि इस तरह के सर्वेक्षणों से मतदाताओं का वह दो प्रतिशत, जो हवा का रुख देखकर इधर-उधर होता है, इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। ऐसे में जहां उम्मीदवारों में जोर बराबर को हो या बहुकोणी मुकाबला हो वहां यह दो प्रतिशत ही पासा पलटने में पर्याप्त होता है। पिछले दिनों हुए स्टिंग की यह आशंका सही भी साबित हुई कि पार्टी विशेष ने सर्वेक्षणों के नतीजों को अपने पक्ष में प्रसारित करवाने में करोड़ों रुपए खर्च किए। इन सर्वेक्षणों का मकसद यही रह गया है क्या?
विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को इन सर्वेक्षणों को लेकर छुईमुई की भूमिका में देखा जा सकता है। नतीजे यदि पक्ष के आते हैं तो वे इन्हें अधिकृत बताने से नहीं चूकतीं और खिलाफ हों तो बकवास बताने से भी। कांग्रेस ने इस पर दो पायदान ऊपर होकर इन सर्वे पर होने वाली चर्चाओं में भाग लेने से ही इनकार कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के इस बार की तरह पहले कभी बहिष्कार तो नहीं किया पर जब-जब इन सर्वेक्षणों के नतीजे अपने प्रतिकूल पाए तब इन्हें उसने भी खारिज किया है।
आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी प्रकार की रोक-टोक या सेंसरशिप को जायज नहीं कहा जा सकता पर सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय जिम्मेदारी यह भी बनती है कि ऐसे में प्रत्येक नागरिक के विवेक की चलनी इतनी विकसित हो कि मूल्यहीनता, प्रलोभन युक्त और विवेक को हरने वाली बातें उससे छन कर निकले ही नहीं।

4 अप्रेल, 2014

No comments: