आर्थिक उदारीकरण भ्रष्टाचार को सींचने
का मुख्य जरीया है। पिछले बीस-पचीस वर्षों से जब
से उदारीकरण की यह बयार चली है, तब से
ही मनुष्य की गरिमा और जीवन सस्ता हुआ है। और यह कीमती से बेकीमती होता चला जा रहा है। कहने को तो देश में नियम-कायदे इतने हैं कि उन
पर निष्ठा से अमल किया जाय तो न भ्रष्टाचार होगा और न ही कोई दु:खी। लेकिन प्रत्येक नियम-कायदे
का तोड़ इनके बनने के साथ ही ईजाद कर उनकी कीमतें तय कर ली जाती हैं। निजी क्षेत्र के लिए श्रम सम्बन्धी नियम-कायदों की बात
करें तो श्रम विभाग, फैक्टरी व बॉयलर
विभाग, कर्मचारी राज्य बीमा निगम और कर्मचारी भविष्य निधि जैसे विभागों के माध्यम से सरकार ने कर्मचारियों के कल्याण के कई नियम कायदे बनाए और लागू किए हुए हैं पर जमीनी स्तर पर इनका असर दिखाई नहीं देता।
कल जब
स्थानीय रानीबाजार स्थित रसगुल्ला फैक्टरी में बॉयलर फटा और एक श्रमिक की मौत के साथ फैक्टरी के भागीदार सहित तीन व्यक्ति घायल हुए तो इन दो दिनों में श्रम और औद्योगिक इकाइयों से सम्बन्धित सभी तरह के नियम कायदे सुर्खी पाने लगे। अधिकांश औद्योगिक और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान सुरक्षा मानकों का निर्वहन नहीं करते है। तभी ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं। बीकानेर जिले से सम्बन्धित जो आश्चर्यजनक आंकड़ा सामने आया वह हैरान कर देने वाला है। फैक्टरी और बॉयलर एक्ट में जिले में मात्र चौसठ इकाइयां ही पंजीकृत हैं जबकि जिले के कई औद्योगिक क्षेत्रों में हजारों इकाइयां कार्यरत हैं। हालांकि इस एक्ट के अन्तर्गत सभी औद्योगिक इकाइयां नहीं आती, कुछ विशेष प्रकार की या
जिनमें कुछ विशेष प्रकार के उपकरण लगे होते हैं, उन्हें ही इस
एक्ट के अन्तर्गत माना जाता है।
भारत सरकार के अन्तर्गत
आने वाले कर्मचारी राज्य बीमा निगम के साथ फैक्टरी और बॉयलर विभाग के जैसे विशेष प्रावधान नहीं है। केवल यही है कि मशीनें लगी ऐसी इकाइयां जहां दस से ज्यादा श्रमिक काम करते हों या बिना मशीन की औद्योगिक और वे सभी इएसआई निजी संस्थान जिनमें बीस से ज्यादा कर्मचारी काम करते हैं, वह इस
एक्ट के अन्तर्गत स्वत: ही आ
जाते हैं।
कर्मचारियों के हित
की सर्वाधिक अच्छी योजना है, बावजूद इसके न केवल
इकाइयों के मालिक बल्कि श्रमिक कर्मचारी भी इन प्रावधानों के अन्तर्गत आने से बचते रहते हैं। एक बड़ा कारण यह है कि मालिक तो इसलिए बचते हैं कि एक तो उन्हें अंशदान देना होता है, जो हालांकि
बहुत ही कम होता है, दूसरा यह कि
कुछ अतिरिक्त हिसाब-किताब भी रखना
पड़ता है। तीसरा यह कि सामान्यत: कर्मचारी इनके लिए अंशदान देने को तैयार
नहीं होता है, तो नियोजकों
का बहाना है कि कर्मचारी का अंशदान भी उन्हें ही भुगतना होता है। कर्मचारी इसके लिए तैयार न होने के कई कारण हैं, जिनमें एक तो
पहले से वेतन इतना कम होता कि उसका मात्र पौने दो प्रतिशत कटवाना भी उन्हें पहाड़ सा लगता है, और असंगठित
क्षेत्र का होने के चलते नौकरी की सुरक्षा नहीं होती, जिसके चलते इकाई बदलने पर दूसरी
इकाई यदि इस स्कीम की नहीं हो तो उसके लाभ बन्द हो जाते हैं। सबसे बड़ी समस्या इन स्कीम पर दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवाएं हैं। इएसआई के अस्पताल और डिस्पेंसरियों में सामान्य सुविधाएं भी लापरवाही की भेंट चढ़ी होती हैं।
ऐसा ही मामला
कर्मचारी भविष्य निधि विभाग का है। जिन इकाइयों और संस्थानों में बीस या बीस से अधिक कर्मचारी काम करते हैं वे सभी इस प्रावधान में आ जाते हैं। लेकिन जो बाधाएं राज्य कर्मचारी बीमा निगम में बना ली गई हैं लगभग वैसी ही बाधाएं इसमें भी मानी जाती है। रही बात श्रम विभाग की तो इन दो-तीन दशकों से इस
विभाग में इतनी शिथिलता आ गई है कि इसका काम लगता है अब केवल वाणिज्य संस्थान का लाइसेंस बना कर देना भर ही हो गया है। शेष प्रावधान पता नहीं क्यों इस विभाग ने खूंटी पर टांग रखे हैं। ऐसे सभी विभागों में कुछ बेतुके प्रावधानों और पेचीदगियों को झाड़ दिया जाय तो इनका चेहरा-मोहरा ठीक हो सकता
है।
कुल मिलाकर उदारतापूर्वक श्रमिक सम्बन्धी इन प्रावधानों
का अवलोकन करें तो लगेगा कि यह सभी न केवल श्रमिकों के लिए लाभकारी हैं बल्कि नियोजकों (मालिकों) के
लिए भी सुकून देने वाले हैं। बशर्ते कि इन पर सरकार भरोसा बढ़ाए और नियोजक भरोसा जताएं।
3 अप्रेल,
2014
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