अधिक मास वाले विक्रम संवत् के बाद
आने वाली अक्षय तृतीया सामान्यत: मई तक
खिसक जाती है। अक्षय तृतीया से एक दिन पहले यानी आखाबीज बीकानेर का स्थापना दिवस भी है। खुशी के मान लिए गये इस अवसर के उल्लेख पर कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य ठठ्ठेबाजी में कह देते
हैं कि 'बीके' को
गांव ही बसाना था तो जोधपुर से चलकर उत्तर की ओर इस रेगिस्तानी इलाके में आने की बजाय दक्षिण की अर्बुद पहाडिय़ों (जहां आबू है)
का रुख क्यों नहीं किया। सुनने वाला हाजिर जवाबी में कह ही देता है कि इलाका अगर ननिहाल हो तो ऐसी सून में गांव बसाने में कोई खास मशक्कत नहीं होती।
सून शब्द से ध्यान
आया कि यह सून सवा पांच सौ साल पहले ही नहीं थी अब भी है। सात लाख से ऊपर की आबादी के साथ शहर हो चुकी यह बसावट अपनी नगर स्थापना दिवस को अंटी से पैसा और एक-डेढ़ दिन लगा कर मना
लेती है। रस्मी तौर पर पिछले तीनेक दशकों से राव बीकाजी संस्थान नाम की संस्था लीक पर आयोजन की औपचारिकता पूरी कर लेती है। प्रशासन और स्थानीय निकाय नगरद्वार कोटगेट और कुछ भवनों पर रोशनी की सजावट करवा देते हैं, मीडिया वाले ईमल्याण-खीचड़े
की पाकविधि, चन्दे और पतंग
की खबरें और कुछ घटित और कुछ घड़े गये इतिहास को फीचर के रूप में दोहरा कर खानापूर्ति और दूसरे दिन कुछ जनप्रतिनिधियों कुछ प्रशासनिक-पुलिस अधिकारियों, दबंगों
और विज्ञापनदाताओं के पतंग उड़ाते फोटो छापकर या क्लिप दिखाकर अपना बचा-खुचा धर्म भी पूरा
कर लेते हैं।
दूसरे ही दिन
छतों से उतरा शहर अपनी बारहमासी में लग जाता है। आजादी बाद से इस त्योहार का दस्तूर कमोबेश यही रहा है। घर में बच्चे का भी जन्मदिन मनाते हैं तो एक दो दिन पहले उसके बाल कटवा कर सजवाया जाता है, नई पोशाक
दिलाई जाती है, उसी सुबह उसे ढंग से नहलाकर
कुछ विशेष टीके-टमकों के साथ
तैयार किया जाता है पर जिसे हम अपना शहर कहते हैं उसके प्रति उक्त लीक-पीटू तामझाम के अलावा
कुछ करने, करवाने की हमें
सूझती ही नहीं है। स्थापना दिवस मनाने के लिए स्थानीय निकाय कुछ दिन पहले से विशेष अभियान चलाकर क्यों नहीं शहर की साफ-सफाई करवाता है,
क्यों नहीं शहर की सड़कों-गलियों और नालियों
को दुरुस्त करवाता? सभी रोड लाइटें भी इस
बहाने दुरुस्त हो सकती हैं। शहर के जिन इलाकों में सड़कें, नालियां, रोड
लाइटें नहीं हैं उन्हें अगली अक्षय तृतीया तक योजनाबद्ध रूप से बनवाया भी जा सकता है।
अलावा इसके जो बड़ी
योजनाएं हैं, जैसे कोई महत्त्वपूर्ण लिंकरोड है,
कोई ओवरब्रिज है या जरूरत हो तो एलिवेटेड रोड को भी आयोजनबद्ध तरीके से पूरी करवा कर नगर स्थापना के दिन लोकार्पित करवाया जा सकता है। जनप्रतिनिधि और प्रशासन चाहते तो इसी आखातीज को कुछ सौगातें नगरवासियों को दे सकते थे-पूरी तरह तैयार चौखूंटी ओवरब्रिज, जैन
स्कूल के पास वाली गंगाशहर रोड-मोहतासराय इलाके की लिंकरोड,
रवीन्द्र रंगमंच, डाक बंगले के पास
से सूरज टॉकीज चौराहे तक की सड़क, सांखला फाटक पर कोयला
गली की तरफ दूसरा बैरियर लगवा कर फाटक चौड़ा करवाने जैसे कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें पूरा करवाकर इसी आखातीज पर लोकार्पित किया जा सकता था। पर बिना जनप्रतिनिधियों की सूझ और इच्छाशक्ति के यह सब संभव नहीं है। प्रशासन तो आया-गया है। जनप्रतिनिधि चाहें तो चतुराई
से उनसे बहुत कुछ करवा सकते हैं, पर इसके
लिए जनप्रतिनिधियों में सूझ और इच्छाशक्ति का होना भी जरूरी है। तकलीफ के साथ लिखना पड़ रहा है कि इस शहर को आजादी बाद से एक भी नेता या जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं मिला जो सूझ, इच्छाशक्ति और चतुराई
से समृद्ध हो। धन तो जनता का ही लगना है जो अधिकांशत: ऊलजलूल लग ही
रहा है।
29 अप्रेल,
2014
1 comment:
भाई साहब ये केवल रस्म अदायगी का कार्यक्रम रह गया है। कुछ गिने चुने लोग है जो इसको सेलिब्रेट करते हैं और मैं तो यह कहूॅंगा कि ये लोग ‘गोथळी में गुड़ भांगने’ का काम करते हैं। फिक्स लोग मनाने वाले फिक्स अधिकारी आने वाले और ज्यादातर तो इन्हीं से जुड़े लोगों का सम्मान और एक या दो नए लोग शामिल कर लेते हैं और महज प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपने होने की सार्थकता साबित करने का प्रयास किया जाता है। हो सकता है कि मेरी बात काफी लोगों को पसंद न आए लेकिन सत्य है जिसे अनुभव किया है।
हमने इस लीक से हटकर कुछ करने का प्रयास दो साल पहले किया था तो हड़कम्प मच गया और सब ये सोचने लगे कि ये तो अधिकार हमारा है ये कौन लोग आ गए तो हमारे अधिकार का अतिक्रमण कर रहे हैं बाकायदा प्रशासन की मीटिंग में एडीएम साहब के सामने हमारे कार्यक्रमों का विरोध हुआ और एक प्रतिष्ठित समझे जाने वाले सम्पादक महोदय ने बीकानेर के पार्षदों व कईं हस्तियों को फोन करके हमारे कार्यक्रम में शामिल होने से मना किया और जो लोग हमें इस आयोजन के लिए प्रायोजक के तौर पर मिल रहे थे उन पर भी दबाब बनाया गया कि कैसे भी हो इन नई टीम का किसी भी सूरत में सहायता नहीं करनी है। भला हो इस शहर की जनता का की जिसके सहयोग से हमने तीन दिवसीय आयोजन कर लिया पर कैसे किया ये हमारा दिल ही जानता है। हमें नहीं पता था कि कुछ बड़े समझे जाने वाले लोगों के दिल इतने छोटे होते होंगे। खैर काफी दुःख हुआ उन दिनों की अपने शहर का जन्मदिन मनाने का साचे कर हमने अपने समझे जाने वाले कुछ लोगों की मित्रता से हाथ धो लिया। भाई साहब शायद आपकी इस पोस्ट ने दुखती रग पर हाथ रख दिया इसलिए उन दिनों जो हुआ बता दिया। कुछ त्रुटि हो या किसी को बुरा लगे तो माफी मांग लेता हूॅं।
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