Tuesday, April 22, 2014

भारतीय लोकतंत्र की राजनीतिक व्यथा

देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा के सदस्यों के लिए चुनाव हो रहे हैं। देश की कभी सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस 1984 के चुनावों के बाद से अपने सिकुडऩ-दौर से गुजर रही है, सम्भवत: यह चुनाव उसके लिए सबसे बुरा होगा। जिसे नेता मान लिया गया है, वह राहुल गांधी अपने हाव-भाव और भाषणों से कोई करिश्मा पैदा करने में लगभग असफल रहे हैं। यदि यह मानें, मान ही लेना चाहिए कि राजनीति अब व्यवसाय हो गई है और ऐसा व्यवसाय, जिसकी सफलता उसके नेताओं के प्रदर्शन से जुड़ी है। कांग्रेस के कई नेता अपनी प्रदर्शन प्रतिभा केवल इसलिए नहीं दिखा पा रहे हैं कि उनके प्रदर्शन को राहुल गांधी के प्रदर्शन का अधिक्रमण मान लिया जाय। इन चुनावों में कांग्रेस की गत खराब होने का एक बड़ा कारण यह भी मान लिया जाना चाहिए।
जनसमूह को राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित करने में क्षमतावान नेता कांग्रेस में फिलहाल केवल सोनिया गांधी हैं। जिन्होंने या तो खराब स्वास्थ्य के चलते या राहुल को आगे करने के मकसद से अपने को सीमित कर लिया है। मनमोहनसिंह से कभी खास उम्मीद थी भी नहीं। कुछ थोड़ी बहुत थी तो ज्ञात-अज्ञात कारणों से अपने इस दूसरे कार्यकाल को अपने द्वारा ही ओढ़ ली गयी मर्यादाओं से सीमित कर लिया है।
सैकड़ों वर्षों की राजशाही और गुलामी के बाद भारतीय जनमानस अपने शासक में अब भी तिलिस्मी छवि ढूंढ़ता है। ऐसी मानसिकता और इस मानसिकता पर स्वार्थ के लेप से ग्रसित एक खास वर्ग और दूसरी ओर लोकतांत्रिक मूल्यों से सर्वथा अनभिज्ञ आम भारतीय मतदाता जो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों और कर्तव्यों दोनों की अवहेलना में अनायास ही लिप्त हैं। ऐसे ही लेप और लिप्तताओं के चलते हमने अपने शासकों को बिगाड़ कर दो कौड़ी कर दिया और यह मान लिया है कि हमारे नसीब में ऐसे ही शासक लिखे हैं। इसी का फायदा उठाकर आजादी बाद अब तक सर्वाधिक शासन करने वाली केवल कांग्रेस शासक के रूप में बद से बदतर होती गई बल्कि उसके विकल्प के रूप में उभरे सभी राजनीतिक दल कांग्रेस की भोंडी नकल बन कर जनता के सामने पेश होते गए।
अलोकतांत्रिक अमानवीय विचारधारा से उपजा राष्ट्रीय स्वयंसेवक और उसका बाय-प्रॉडक्ट भारतीय जनता पार्टी जिनके खाने और दिखाने के दांत हमेशा अलग रहे हैं, वे भी इस चुनाव के आते-आते जनता की उक्त उल्लेखित कमजोरियों को भलीभांति भांप गये हैं। सत्ता के लालच में ये भी कांग्रेसी चाल-चलन और अपनी जैसी-तैसी विचारधारा के मेल में अब तक के सबसे भद्दे स्वांग में जनता के सामने है। जनता भी कुछ तो ऊपर बताई गई मानसिकता के चलते और कुछ कांग्रेसी शासन से पैदा उक्ताहट के चलते कुएं से निकल खाईं में गिरती लगती है। कोई आश्वस्त करने वाला विकल्प है भी नहीं। आम आदमी पार्टी और उसके पितृ-पुरुष अन्ना हजारे ने जनरोष को उलटे निराशा में ही धकेला है। गहरे मानवीय विचारों के अभाव और समस्याओं और मुद्दों पर अपने अपरिपक्व समाधानों से लगता है इन्होंने शहरी आक्रोश को गलत दिशा में मोड़ दिया।
इस सबके बावजूद निराश होने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र के साथ जैसी भी हमारी व्याप्ति है उसे हासिल करने का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है और ऐसे ही संकटों को झेलकर, अपना कुछ और बहुत कुछ खोकर लगातार कुछ कुछ हासिल किया है। अपने साथ जो भी बीत रहा है, उसे ही नियति मानें, और अपने हकों को पहचानने और उन्हें हासिल करने में प्रयासरत रहें।

22 अप्रेल, 2014

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