Wednesday, April 2, 2014

आज मतदाताओं से कुछ

देश के अन्य हिस्सों में जिसे पगलाना या बौराना कहते हैं उसे हमारे इधर गेला होना भी कहा जाता है। मित्र में भरोसा जताते हुए उसकी तारीफ कर दें तो वह फट से कहता है कि गेलो करस्यों कईं। देश के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो भारतीय जनता पार्टी में फिलहाल लगभग ऐसी ही स्थिति है। सामूहिकता की बात करने वाली यह पार्टी कांग्रेस को व्यक्तिनिष्ठ या परिवारनिष्ठ के रूप में भुंडाती रही है लेकिन खुद भाजपा ने लोकसभा चुनावों की हार्ड और डिजीटल दोनों तरह की प्रचार सामग्री में पार्टी के अन्य सभी नेता सिरे से गायब कर दिए गए हैं। वहां भाजपा का नाम भी लगभग गायब सा है। यह सब देखकर खुद के देखे समझे आपातकाल का स्मरण हो आता है जिसमें तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने 'इन्दिरा इज इण्डिया' उवाचा था। स्वाध्याय में पिछली सदी के चौथे दशक का जर्मनी भी कौंधता हैं। इस तरह के इतिहास की वाकफीयत रखने वालों को आशंकाओं की सिहरन घेरने लगती है।
पार्टी दिग्गजों को दरकिनार करके मोदी की तरह ही इन्दिरा गांधी ने 1971 के मध्यावधि चुनावों में देश में ऐसी ही गेलाई पैदा की और चुनावों के नतीजे इन्दिरा गांधी की उम्मीदों से कुछ ज्यादा ही उनके पक्ष में गये। हमारे इधर कहावत है कि सेर की हांडी सवा सेर उरोगे तो छलकेगा ही। यह इकत्तर के बाद ऐसी छलकी कि देश के चेहरे पर आपातकाल की कालिख पुत गई।
संघ, पार्टी, मोदी समर्थक और कांग्रेसराज से धाए-धापों पर गेलाई सिर चढ़कर बोलती दिखने लगी है। लगातार बढ़ती इस गेलाई से अन्य सभी पार्टियां, उनके नेता और कार्यकर्ता चमगूंग में जाते लगने लगे हैं। मोदी देश को विभिन्न मुद्दों पर जिस तरह से गुमराह कर रहे हैं या जिस हद तक उम्मीदें बंधा रहे हैं वैसा ही सब कुछ करने का दुस्साहस अथवा नासमझी सत्ता मिलने के बाद करेंगे तो देश केवल आंतरिक तौर पर बल्कि बाहरी तौर भी उलट-पुलट जायेगा और तब इसे सम्हालने में कितना समय लगेगा और देश को कितनी कीमत चुकानी होगी, बता नहीं सकते। इस तरह बरगलाना यदि वोट जुगाडू रणनीति का हिस्सा है तो देश का मतदाता वैसे ही हताश-निराश होगा जैसा 1977 के बाद जनता पार्टी के नेताओं की आपसी सिर फुटौअल से हुआ था। तब मतदाता ने तंग आकर पुन: इन्दिरा गांधी और कांग्रेस को राज सौंप दिया था। हबीड़े में लिए गए निर्णयों में विवेक का अभाव होता है। देश के मतदाता को कम से कम अब तो परिपक्व हो जाना चाहिए। आजादी के इन छासठ सालों के बाद तो कम से कम देश से असल प्यार करना और इस देश की सार्वजनिक और सरकारी सम्पत्ति का न्यासी खुद को मानना प्रत्येक नागरिक को शुरू कर देना चाहिए।
कोई निकटस्थ भी यदि इन सम्पत्तियों और परिसम्पत्तियों में खयानत की कौशिश करे और आप मुंह खोलने का साहस नहीं कर सकें तो सम्बन्धित जिम्मेदार को कम से कम बेनामी चिट्ठी तो लिख ही सकते हैं। रही बात चुनावों की-आपको लगता है कि आपके क्षेत्र से खड़ा कोई उम्मीदवार या पार्टी शत-प्रतिशत खरी नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट के दिए जादुई बटन 'नोटा' का प्रयोग करें। हताशा-निराशा में अब तक मतदान केन्द्र तक जाने वालों को जाने का कर्तव्य निभाने के लिए नोटा के रूप में बटन सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। इसका बेधड़क उपयोग करें-ओट में लगे इवीएम का बटन दबाते आपको कोई देख नहीं सकता है।
रही बात नोटा को फिजूल कहने वालों की-तो छासठ साल बाद नापसन्द को नकारने का जैसा भी हक हासिल हुआ है उसका उपयोग करके हम खुद इसे नाकारा कर देंगे। उपयोग करेंगे तो नोटा की ताकत बनेगी। नोटा को जितने ज्यादा वोट मिलेंगे तो उसकी चर्चा होगी। चर्चा होगी तो इसका महत्त्व बढ़ेगा। इतिहास गवाह है कि लोकतान्त्रिक हकों का विकास कुछ इसी तरह हुआ है। किसी की उपेक्षा या अनदेखी करना कम कारगर उपाय नहीं होता। अब तक जिसे आप भरोसा या प्यार देते रहे हैं, स्वांग में ही सही थोड़ी देर के लिए उसकी अनदेखी करके इसे आजमा लें। 'नोटा' भी इन नाकारा, भ्रष्ट और स्वार्थी राजनेताओं पर वैसा ही असर करेगा।

2 अप्रेल, 2014

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