लोक में एक कथा
प्रचलित है जिसमें चोरी की भनक लगने पर मालिक या पड़ोसी की जाग और हाके होने पर भागता चोर अंधेरे का लाभ उठाकर बड़ी चतुराई से अपने पीछे भागने वालों में ही शामिल हो जाता है और उन्हीं के साथ चोर-चोर चिल्लाकर साहूकार होने का स्वांग
भर लेता है।
आजादी के छासठ
वर्ष बाद भी भारतीय मतदाता का लोकतांत्रिक देश के नागरिक के रूप में पूर्णतया शिक्षित न होने से उपजे अंधेरे का लाभ वे सभी सत्तालोलुप गिरोह उठा रहे हैं जिन्होंने सत्ता के किसी न किसी रूप पर अपना कब्जा जमा रखा है। सत्ता के कई रूप हैं- राजसत्ता, शासनसत्ता,
धर्मसत्ता, धनसत्ता, बाहुबलसत्ता आदि-आदि। असुरक्षा की हीन ग्रंथि से ग्रसित इन सभी प्रकार के सत्ताधीशों ने आम आदमी के समानता के अधिकार का लगातार अपहरण किया है। चिन्ता तो यह है कि प्रत्येक समर्थ जो किसी भी तरह से समर्थ होते ही वह उपरोक्त गिरोहों का हिस्सा बन जाता है।
चोर की कथा
कहने का मकसद भारतीय जनता पार्टी द्वारा इन चुनावों में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने से है। थोड़ी बहुत समझ के लिए अवकाश निकालने वाले सभी जानते हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा और कांग्रेस में उतना ही अन्तर है जितना भ्रष्टाचार करने के लिए मिले इनको अवसरों का है। प्राकृतिक सम्पदाओं, सार्वजनिक सम्पत्तियों और कालेधन
की लूट में शामिल होने की तत्परता भाजपा और कांग्रेस सहित अन्य अधिकांश राजनीतिक गिरोहों में समान रूप से देखी जाती है। दरअसल यह सारा चुनाव अभियान लाखों-हजारों करोड़ के कालेधन
के बूते ही चल रहा है। नरेन्द्र मोदी के केन्द्र में आ जाने के बाद इस मामले में भाजपा फिलहाल अव्वल है, होगी भी क्यों
नहीं जब मोदी का विकास आम आवाम का विकास नहीं है। मोदी का विकास कारपोरेट, औद्योगिक घरानों और व्यापारियों
का विकास है। जो यह मान बैठे हैं कि ईमानदारी के साथ कोई व्यापार हो ही नहीं सकता। सही है, ईमानदारी के साथ
व्यापार तो हो सकता है, लूट नहीं।
कांग्रेस इन चुनावों
में अपने पर थोपे नेता की नाबालिगी के चलते लगभग बचाव की मुद्रा में है। नरसिंहराव के बाद सोनिया के नेतृत्व और मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में संप्रग (एक)
के रूप में कांग्रेस सत्ता में लौटी तो चाल-चरित्र तो वही
था जो सत्ता रूपों का ऊपर बताया है, पर लगभग
सामूहिक नेतृत्व की आड़ में सब सजा-संवरा चलता रहा। संप्रग (दो) की सफलता ने कांग्रेस को अति आत्मविश्वास में ला दिया और उन्हें लगने लगा कि वंशवाद को आगे बढ़ाने का उचित अवसर यही है। बिना इसकी परवाह किए कि राहुल अभी बालिग हुए या नहीं। राहुल की बचकानी हरकतों से लगता है संप्रग (दो)
में प्रधानमंत्री लगातार निष्क्रिय होते गये और इन चुनावों के आते-आते सरकार और कांग्रेस
दोनों जनता की नजर में दिवालिया हो गये।
भाजपा को यह
अवसर उचित लगा और बिना गिरेबां में झांके चोर-चोर चिल्लाती हुई साहूकारों में शामिल हो गई।
चतुर-सुजान को नेतृत्व भी मिल गया। अघाई जनता भी चुंधियाती लग रही है। मोदी विकास के खोखले दावे, उनके झूठ लगातार पकड़े जाने और उनके
द्वारा गुमराह करने के बावजूद यदि जनता उनमें या कांग्रेस सहित ऐसे ही चरित्रवाली अन्य पार्टियों में भरोसा जताती है तो यह उनकी विकल्प को न समझने की अज्ञानता ही है। उच्चतम न्यायालय ने अधूरा ही सही ऐसे सभी को नकारने का एक 'नोटा' बटन
इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में दिया है। यही मौका है कि दुविधा की स्थितियों में अपने को विकल्पहीन न समझें और किसी तरह के लिहाज और प्रलोभन में न आकर 'नोटा' का
प्रयोग शुरू करें और नोटा में अधूरेपन को पूर्ण करने को बाध्य करें। शासन की ताकत आप सबकी अंगुलियों में है जो पांच साल बाद ही सक्रिय होती है। वोट देने का काम चलताऊ नहीं सो इसे चलताऊ तरीके से नहीं करें। कम खराब या कम भ्रष्ट को चुनने की मजबूरी 'नोटा' के
ताकतवर होते जाने के बाद नहीं रहेगी। नोटा को काम नहीं लिया तो कहते हैं ना- पड़े-पड़े
हाड हराम हो जाते हैं या पड़ी मशीन में जंग लग जाता है, नोटा की गत
यह न होने दें। ऊपर उल्लेखित सभी तरह के गिरोह 'नोटा' का
हश्र यही देखना चाहते हैं, और बारी-बारी से देश को लूटना भी।
11 अप्रेल,
2014
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