Tuesday, April 1, 2014

सुराना के बहाने समाजवादियों की पड़ताल

लूनकरणसर से निर्दलीय विधायक और विचारों से समाजवादी मानिकचंद सुराना ने लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार अर्जुनराम मेघवाल को अपना समर्थन दे दिया है। आश्चर्य की बात इसलिए नहीं है क्योंकि सुराना अपनी व्यावहारिक और चुनावी राजनीति अब तक भाजपा के बैनर से कर रहे थे।
भारतीय राजनीति में 1977 के उफान के बाद समाजवादी पार्टियों में जो बिखराव आया उसे सहेजने की कोशिशें तो जारी है पर ऐसा किसी व्यापक जनाधार वाले समाजवादी नेता की तरफ से नहीं हो रहा। चन्द्रशेखर और मुलायमसिंह यादव जैसे जनाधार वाले नेता व्यक्तिगत एषणाओं को विचार पर हावी नहीं होने देते तो राजनीति में आज के इस अंधकार में वे उम्मीदें बनाए रख सकते थे। हालांकि किशन पटनायक आजीवन लगे रहे, उन्होंने चुनाव भी लड़े पर व्यक्तित्व में मा अपीलिग के अभाव में प्रदर्शन कला के इस राजनीतिक व्यवसाय में कुछ कर नहीं पाए।
आजादी बाद राजस्थान में खासकर बीकानेर और उदयपुर संभाग के आदिवासी क्षेत्रों में समाजवादियों ने व्यावहारिक राजनीति में अपनी पैठ बनाई। आजादी बाद 1948 में समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का पहला सम्मेलन और पहला प्रांतीय अधिवेशन बीकानेर में हुआ। राजस्थान में सुराना उन राजनेताओं में से हैं जिन्होंने राजनीति को वैचारिक उद्देश्य पूर्ति के लिए अपनाया और अपने अधेड़ होने तक इस पर दृढ़ भी रहे। पर पिछली सदी के आठवें दशक के बाद लगता है उन्होंने विचार को खूंटी पर टांग दिया और राजनीति को पेशा मान लिया। बावजूद इस सबके वे राजस्थान के गिने-चुने उन नेताओं में हैं जिन्होंने अपने राजनीतिक पेशे को शिद्दत से परोटा, उसी का नतीजा है कि विचारशून्यता और जाति प्रभावी इस युग में भी न्यूनतम जातीय समुदाय से होने के बावजूद पार्टी से बगावत करके उन्होंने चुनाव लड़ा और जीता।
व्यावहारिक राजनीति करने वालों को समाजवाद की समझ अपने में भले ही पैदा करनी हो, पर जमीन से जुडऩे की कुव्वत उन्हें सुराना से सीखनी चाहिए। सुराना समाजवादी राजनीति को अब भी कुशल गुरुडम से समझा- सिखा सकते हैं, जिसकी जरूरत भी फिलहाल देश को है।
पिछली सदी के अन्त तक आते आते और जनता पार्टी/जनता दल के बिखराव के बाद वे सभी समाजवादी दुविधा में गये जिन्होंने अन्य पार्टियों के नेताओं की तरह राजनीति को पेशे के रूप में नहीं अपना लिया था। मुलायम-लालू जैसे जो चतुर और सक्षम थे और जिनके वैचारिक आग्रह नहीं थे वे अपनी अलग-अलग दुकानें खोल कर राजनीति बेचने लगे। जयपाल रेड्डी और मोहनप्रकाश जैसों ने समय रहते कांग्रेसी छूत को झड़का दिया। ऐसों को सफल इसलिए भी कहा जा सकता है कि इन्होंने कांग्रेस में ठीक-ठाक हैसियत हथिया ली और उसे बनाये रखे हुए हैं। पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस विरोध की करने की छाप से अपने को मुक्त कर सकने वाले सुराना जैसे लोग भारतीय जनता पार्टी में चले गये। सुराना ने संभवत: जानते हुए भी इस सचाई को नजरअन्दाज किया कि भाजपा में वे तीसरे दर्जे के भरोसे से ज्यादा कभी हासिल नहीं कर पाएंगे। वहां पहले दर्जे का भरोसा संघनिष्ठों में और दूसरा दर्जे का नये जुड़े नेताओं को मिलता है जिनकी स्लेट साफ होती है।
पिछले विधानसभा चुनाव में पूरी तरह छिटकाए जाने के बावजूद सुराना का भाजपा के समर्थन में आना पहेली से कम नहीं है। क्या उन्हें कोई गाड़ी, झण्डी का लालच दिया गया है? लगता तो नहीं है, खुद भाजपा के पास इतने नेता/विधायक हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें सन्तुष्ट करना वसुन्धरा के लिए कम सिरदर्द नहीं होगा। या वे केवल इसी उम्मीद में समर्थन कर रहे हैं कि सरकार पांच साल इन्हीं की रहनी है सो अपने मतदाताओं के हित में वे कुछ कहें तो उन्हें अनसुना किया जाय। अगर इतना ही है तो उनका यह कदम अपने से उम्मीदें बनाए बैठे समर्थकों के हित में और उचित है।
चुनाव तो अगला सुराना शायद ही लड़ें और विरासती जितेन्द्र सुराना का मोह भी अब तक इस व्यावहारिक राजनीति से भंग हो ही गया होगा। पिछली सदी के नौवें दशक को समाजवादियों के लिए गहरे असमंजस का दशक कहा जा सकता है। सुराना तब पेशेवर राजनीति को छोड़कर कुछ नवयुवकों को समय देते और एक वैचारिक टीम तैयार करते तो देश और समाज के प्रति असल कर्तव्य की वे पूर्ति भी करते और बौद्धिक ऋण से उऋण भी होते। ऐसा करने में सुराना सभी तरह से सक्षम और समर्थ थे और हैं। देश को फिलहाल केवल और केवल ऐसे ही प्रयासों की जरूरत है।

1 अप्रैल, 2014

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