सोशल
नेटवर्किंग साइट्स पर आज जाने-माने व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के कुछ 'सुभाषित' पढऩे
को मिले, बड़े समीचीन लगे और मन हुआ कि 'विनायक' के पाठकों से इन्हें साझा किया जाए।
'जब शर्म की बात गर्व की बात बन
जाए तब समझो कि जनतंत्र बढिय़ा चल रहा है।'
'राजनीति में शर्म केवल मूर्खों
को आती है।'
'फासिस्ट संगठन की विशेषता होती
है कि दिमाग सिर्फ नेता के पास होता है बाकी सब कार्यकर्ताओं के पास सिर्फ शरीर होता
है।'
परसाई
ने ये जुमले कोई तीस-चालीस साल पहले लिखे होंगे लेकिन राजनीति के इस गिरोही दौर में
उन कुछ लोगों की सोच को पुष्ट करते हैं जो देश के इस दौर से निकलने की कामना करते हैं।
एक सामान्य धारणा है कि व्यक्ति हो या समाज या फिर देश, कुछ समय के बाद उसमें परिपक्वता
आती है और बुरे से बुरे दौर में भी वे रास्ता निकाल ही लेते हैं। ऐसी जीवटता नहीं होती
तो कोई अन्य सभ्यता 'जुरासिक पार्क' की तर्ज पर 'ह्यूमन पार्क' फिल्म की कल्पना कर
रही होती।
अपने
सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास को हम इतने सरलीकृत तर्कों में समझेंगे तो वही भूल
कर रहे होंगे जो वर्तमान में लगभग सभी समर्थ कर रहे हैं। हमारे इस दौर का दायरा लगातार
संकुचित होता जा रहा है और देश, समाज और व्यक्ति मानवीय हितों के नाम पर निहित स्वार्थों
को साधने और साजने में जुटे हैं। हमारी वैचारिक प्रक्रिया, हमारी प्रतिक्रियाएं और
हमारे कर्मों के साध्य मानवीयता से संकुचित हो देश, क्षेत्र, समाज, धर्म और जातीय समूह
से गुजरते परिवार और अन्तत: खुद पर केन्द्रित होने को तत्पर होते देर नहीं लगाते।
देश
की आजादी के बाद जो ऐसे एहसास की कूवत रखते थे, उन सभी ने मान लिया कि अब से हम सभी
तरह की सार्वजनिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो लिए हैं और हमें अब केवल प्रति पांच साल
होने वाले मतदान के दिन देश के प्रति वोट देने जैसी औपचारिक जिम्मेदारी भर निभानी है।
इस औपचारिक जिम्मेदारी की एवज में हम वह सब कुछ करने को स्वतंत्र हैं जिस-जिस को करने
में हम समर्थ हैं। सामान्यत: देखा गया है कि जो जितना समर्थ हो गया वह उतना ही स्वार्थी
भी होता गया। इसी सामथ्र्य की ताकत पर ही हम तय करते हैं कि उसे इसकी एवज में सामथ्र्यहीनों
के साथ क्या करना और उन्हें कैसे बरतना है।
सोलहवीं
लोकसभा के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। नौ चरणों में होने वाले मतदान की शुरुआत
7 अप्रैल से शुरू होकर 12 मई को सम्पन्न हो जानी है। 16 मई को परिणाम घोषित होकर नई
लोकसभा और अंतत: सरकार के गठन की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। देश के राजनीतिक दलों ने
चुनाव घोषणापत्र की औपचारिक प्रक्रिया अपनाई थी जिसे अब तक लगभग औपचारिक रूप से ही
निभाया जाता रहा है। मतदाता को सब्जबाग दिखाने की इस रस्म पर पार्टियों को कभी गंभीर
नहीं देखा गया। घोषणाओं के दस्तावेज कबाडिय़ोंं के माध्यम से गत्ता मिलों या कागज की
बींया सी ग्रेड मिलों तक पहुंचते हैं और लुगदी में तबदील होकर नया आकार ले लेते हैं।
बहुजन समाज पार्टी ने शुरू से ही इस औपचारिकता से मुक्ति पा ली है। इस मामले में उसकी
तारीफ होनी ही चाहिए कि टनों में कागज को बचाकर वह कितने पेड़ों को बचा लेती है।
मतदान
के प्रथम चरण से मात्र बारह दिन पहले कांग्रेस ने कल अपना चुनावी घोषणापत्र जारी कर
दिया। बेमन से सही अगले दो-तीन दिन में बाकी दल भी इस 'फजीते' को निबटा ही लेंगे। भाजपा
का घोषणापत्र कांग्रेस से कुछ खास भिन्न नहीं आना है। दोनों ही पार्टियों के विजन में
कोई फर्क नहीं है। मुफ्त में अनुदान दे आम आवाम को बरगलाने के अलावा देश की असल समस्याओं
के समाधान की किसी कार्ययोजना में दोनों का ही विश्वास नहीं है। अन्यथा देश का गरीब
और भी गरीब और समर्थ और सामथ्र्यवान नहीं होते। आम आदमी पार्टी ने भी दिल्ली के मतदाताओं
से बिजली की दरें आधी करने के अपने वादे को अनुदान से 'पूरा' कर अपना 'आपा' दे ही दिया
है।
समस्याओं
से छुटकारे की जिन्हें सचमुच जरूरत है, आजादी के छासठ वर्ष बाद भी वे सभी अपने वोट
की सामथ्र्य समझने में असमर्थ हैं जो भारतीय लोकतंत्र का नकारात्मक पक्ष भी है। वोट
की ताकत का हरण सबलों, समर्थों ने कर रखा है। आम जनता जब तक उसे हासिल नहीं करेगी तब
तक यूं ही इनसे छली जाती रहेगी। सरकार चाहे भाजपानीत राजग की बने या कांग्रेसनीत संप्रग
या फिर किन्ही अन्य गिरोहबाजों की-कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। इन राजनीतिक गिरोहों की
आपसी लड़ाई का मकसद लूट में हिस्सेदारी से ज्यादा अब नहीं रहा है। रास्ता कोई निकालना
है तो इन सभी गिरोहों को नाकार कर नकारा करना होगा।
27 मार्च, 2014
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