Monday, March 24, 2014

अनारकली डिस्को चली..

भारतीय सिनेमा में बड़े व्यक्तित्व रहे के. आसिफ ने पिछली सदी के सातवें दशक में 'मुगले आजम' के माध्यम से भारतीय जनमानस पर इतिहास से भिन्न सम्पूर्ण समर्पण तथा निष्ठा की प्रेम कहानी स्थापित की--प्यार के उस तिलस्मी अन्दाज को नजरअन्दाज करवाने की कोशिश 2012 में साजिद-द्वय की हाउसफुल-2 के गाने 'छोड़-छाड़ कर अपने सलीम की गली, अनारकली डिस्को चली...' ने जमकर की।
भारतीय समाज-संस्कृति को बिगाड़ने या उसकी गलत छवि पेश करने के आरोप भारतीय सिनेमा पर लगते हैं तब उसके शुभचिन्तक पहले दबी-जबान और अब खुल्लम-खुल्ला यह कहने से नहीं चूकते कि हम तो वही दिखाते हैं जो समाज में घट रहा है। इसे वे जब-तब साबित भी करते हैं।
अभी इस चुनावी माहौल में राजनीतिक गिरोहों (पार्टियां कहना सम्भवत: अनुचित होगा) में भगदड़ मची है। विचार-निष्ठा को पलीता लगाने, अपने ही कहे को धोने और पुरानी खुन्नस निकालने का जो दौर चला है वह उसी समर्थ समाज का हिस्सा है जिसे ये फिल्में और टीवी सीरियल एक अरसे से दिखाते आए हैं। आज से तीन-चार दशक पहले तक अधिकांश राजनेताओं की निष्ठाएं के. आसिफ के सलीम-अनारकली-सी ही होती थी--कुछ विचलन होता भी तो बहुत सीमित होता था।
अब तो इन नेताओं को अपने गिरोह अनारकली डिस्को चली की तर्ज पर ही बदलते देखा जाने लगा है। एकता कपूर के सीरियलों की तर्ज पर इन नेताओं को अपनी खुन्नस निकालते और कई-कई हजार करोड़ रुपयों के घोटाले करते भी देख रहे हैं।
कांग्रेस में जहां चुनाव का सामना करने में आना-कानी देखी जाने लगी है तो भारतीय जनता पार्टी का तो मानो नरेन्द्र मोदी ने अपहरण ही कर लिया और उसके पायलट राजनाथसिंह मोदी के दृष्टिबंध होकर न केवल पार्टी को हांकने लगे हैं बल्कि मौका देखकर वे अपने पुराने हिसाब चुकता करने से भी नहीं चूक रहे। राजनाथ एक बार पहले पार्टी के घोर असफल अध्यक्ष और उत्तरप्रदेश के अधूरे कार्यकाल के मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
उत्तरप्रदेश से आने वाले पार्टी दिग्गज मुरलीमनोहर जोशी, कलराज मिश्र और लालजी टंडन से तब जरूर कोई बदमजगी महसूस की होगी सो इस बार मिले अनुकूल अवसर पर राजनाथसिंह ने सबसे पहले इन तीनों को ही सलटाया। उधर मोदी ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के पग-पग पर आड़े आने वाले शीर्ष नेता आडवाणी तक को नहीं बख्शा तो अपने प्रदेश में धुर विरोधी साथी नेता हरेन पाठक को भला कैसे बख्शते? क्या हुआ जो सात बार चुनाव जीत चुके हों, पानी में रहकर मगर से वैर का नतीजा पाठक को पार्टी उम्मीदवारी खोकर भुगतना पड़ा। आडवाणी के प्रति पाठक की निष्ठा ही उनका नकारात्मक पक्ष हो गयी।
मोदी डोले में कहार बनी राजस्थान की पार्टी सुप्रीमो वसुन्धरा कब पीछे रहने वाली थीं। प्रदेश पार्टी में उनके खिलाफ जब-तब गर्दन ऊंची करने वाले जसवन्तसिंह को तो रुला ही दिया। क्या हुआ वे अटलबिहारी वाजपेयी के हनुमान रहे, राम जब बिस्तरे पर हैं तो हनुमान की गत यही होनी थी। उन्हें आडवाणी की फजीहत से समझ लेना था कि उनके साथ क्या कुछ होने वाला है। इसमें तो वसुन्धरा की दो गरजें सधी हैं--पिछले लगभग डेढ दशक से कांग्रेस में रहकर उनके लिए मुखबिरी करने वाले कर्नल सोनाराम को भी तो पुरस्कृत करना था।
रही बात कांग्रेस की तो उसकी तुलना उस डूबते जहाज से करना जिसमें चूहों के सबसे पहले दौड़ने का जिक्र आता है, उदाहरण पुराना कहा जा सकता है या हो सकता है, अनुचित नहीं है। क्योंकि 2014 के इन चुनावों में कांग्रेस पिछले सदी के नवें दशक में लोकसभा में भाजपा की दो सीटों वाली स्थिति से बहुत बेहतर ही रहेगी। इसलिए डूबने वाली बात का उदाहरण देना नाइन्साफी में आ सकता है। पर मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत का नारा कांग्रेस युक्त भाजपा में बदलता जरूर नजर आ रहा है। रही बात मुगले आजम और हाउसफुल-2 की तो अब भगदड़ प्रभावितों को ही तय करना है कि 'मोहब्बत की झूठी कहानी पर रोए' गाने को सुनकर गम गलत करें या 'अनारकली डिस्को चली' को सुनकर मन को बहलाने के जतन में लग जाएं।

24 मार्च, 2014

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