Wednesday, February 5, 2014

आरक्षण या बर्र का छत्ता

लगातार खुलते घोटाले, बढ़ती महंगाई और पिछले विधानसभा चुनावों में हुई बुरी गत के चलते कांग्रेस हाऊ-जुजू अवस्था में पहुंच गई है। कांग्रेस के नेता अपने जिस इतिहास पर इतराते नहीं अघाते उनसे उम्मीद तो यह थी कि अपने इस सबसे बुरे दौर में संजीदगी दिखाते और चतुराई से इससे पार पाते, लेकिन हो यह रहा है कांग्रेस परिवार की हालत उस बीमार-सी हो गई जिसमें अच्छे चिकित्सक की सलाह से चलने के बजाय सारे परिचित या तो नीम हकीमी करने लगते हैं या झाड़-फूंक, टोने-टोटके और ताबीज में लग जाते हैं।
छह से नौ और नौ से बारह सिलेण्डर करना, सब्सिडी को खाते में सीधे नकद जमा करवाने की योजना को स्थगित करना, सातवें वेतन आयोग को अमल में लाने के बाद पार्टी के एक महासचिव ने आरक्षण को जाति के बजाय आर्थिक आधार पर करने की चुनौती दे डाली। बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसी इस सलाह पर कई जिम्मेदार कांग्रेसी हाथों-हाथ उनके सुर में सुर मिलाने लगे। राहुल की मनःस्थिति चौवालीस की इस उम्र में उस अस्वस्थ की तरह समझी जा सकती है जिसका शारीरिक विकास तो उम्र के अनुसार हो रहा हो लेकिन मानसिक विकास बढ़ती उम्र के किसी पड़ाव पर कभी का ठिठक चुका है। ऐसे में यह आशंका बनी रहती है कि जनार्दन द्विवेदी जैसे उच्चवर्णीय नेता अपनी वर्णीय पीड़ाओं को उगले और राहुल अपना धोबा उनके आगे कर दें। द्विवेदी ने कल एक बयान देकर राहुल को सलाह दी है कि जातीय आरक्षण खत्म करने का साहस दिखाते हुए इसे आर्थिक आधार पर किया जावे। यदि ऐसा होता है तो कांग्रेस की स्थिति ठीक उस लोक प्रचलित अखाणें के गीदड़-सी होगी जिसमें कहा जाता है कि गीदड़ की जब मौत आती है तो वह शहर की ओर दौड़ता है। गांधीयन-समाजवादी विचारों से सिंचित और वामपंथियों के पम्पोळने से इस मुकाम तक पहुंची कांग्रेस में जनार्दन द्विवेदी जैसे नेता प्रतिष्ठा पा लेते हैं तो आश्चर्य की बात ही है।
चांदी का चम्मच मुंह में लिए बड़े हुए राहुल को देश की सामाजिक-आर्थिक बुनावट और उसके कारणों की समझ नहीं होना तो समझ में आता है पर शेष नेता यदि जनार्दन द्विवेदी जैसी मानसिकता के हैं तो सोचनीय है। सैकड़ों वर्षों का देशीय भू-भाग का ज्ञात सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक इतिहास यही बताता है कि हमारे यहां अब तक जो कुछ भी होता आया, उसका आधार मात्र और मात्र जातीयता ही रहा। उसमें भी वैसा ही कुछ होता रहा जैसा संख्याबल कम होते हुए भी जो बुद्धिबल, बाहुबल और धनबल तय करता रहा। इसीलिए आबादी का बड़ा हिस्सा सदियों से दमित, शोषित और लगभग गैर मानवीय स्थितियों में आज भी जीवन-यापन करने को मजबूर है।
आजादी बाद देश में आरक्षण लागू तो इस गैर बराबरी को समाप्त करने को हुआ था लेकिन राजनीति की मुख्य धुरी इसी पर घूमने लगी। लागू करते समय रही त्रुटियों को बजाय सुधारने के आरक्षण के लाभान्वितों ने नव-अर्जित बुद्धिबल, धनबल और बाहुबल के आधार पर अपने नये सत्ताकेन्द्र बना लिए और आरक्षितों का यह मलाईदार तबका आरक्षण की अधिकांश मलाई खुद ही गप करने की नीयत से आरक्षण सुधारों का विरोध करने लगा। नतीजा यह कि आरक्षण लागू होने के साठ वर्षों बाद आज भी दलितों का बड़ा हिस्सा बुरी स्थितियों में गुजर-बसर करने को मजबूर है।
प्रभावी राजनीतिक दल आरक्षण का सचमुच समाधान चाहते हैं तो नियम कायदों में व्यावहारिक और सही बदलाव लाकर सभी तरह के आरक्षणों के लाभों से लाभान्वितों को बाहर किया जाना चाहिए कि जातीय आरक्षण खत्म करके आर्थिक आधार परआरक्षणका शगूफा छोड़ने जैसा कृत्य जो सर्वथा असामाजिक अमानवीय बातें करके गुमराह करने और समय जाया करने जैसा ही है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण का हश्र उससे भी बुरा होना है जैसा हश्र प्रभावी आरक्षित समूहों ने जातीय आरक्षण का किया है। जिनके पास बुद्धिबल, बाहुबल और धनबल जैसे सत्तारूप जाते हैं वह अपने लाभों और लोभों को राई-रत्ती भी नहीं छोड़ना चाहते। लेकिन ऐसे सभी लोभियों को यह समझ लेना चाहिए कि वोट की ताकत का भान समाज के दमित-शोषित वर्ग को धीरे-धीरे होने लगा है।

5 फरवरी, 2014

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