Thursday, February 20, 2014

मौत की सजा

देश की फितरत ही कुछ ऐसी है या लोकतंत्र की सीमाएं कि हमारे यहां अधिकांश फैसले और नीतियां निर्मल नहीं होती। व्यक्तिगत मैलापन, सामाजिक ताना-बाना, ऐतिहासिक आग्रह-दुराग्रह और इन सब से ऊपर राजनीतिक लाभ-हानि जैसे कुछ कारक हैं जो साफ-सुथरेपन या निर्मलता में आड़े आए बिना नहीं रहते। ज्ञात इतिहास के दो हजार वर्षों में हम बहुत पेचीदा परिस्थितियों से गुजरे हैं और उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद खुली हवा का एहसास करने ही लगे थे कि उक्त उल्लेखित सभी तरह का मैलापन घेरने लगा। स्वतंत्र हुए पर उसका एहसास बजाय सामूहिकता के स्वार्थी होने लगा। इसी स्व-अर्थ की देन भ्रष्टाचार के दलदल में लगातार देश पैठता जा रहा है। न्यायपालिका का सबसे बुरा हाल है, वकीलों की रुचि मुकदमें बनाए और लटकाए रखने में ज्यादा है। जज यदि भ्रष्ट नहीं हैं तो इस मंशा में नहीं दीखते कि मुकदमों को निबटाया जाए।
देश आजाद हुआ, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं लागू हुईं पर कानूनों और सजाओं को क्रियान्वित करने वाली मनोदशा अब भी आदिम है। मौत या फांसी जैसी कबीलाई सजा देश में केवल आज भी कायम है बल्कि इस कानूनी हत्या को जब-तब अंजाम भी दिया जाता रहा है। दुनिया के अधिकांश देशों में सजा के ऐसे प्रावधानों को या तो समाप्त कर दिया गया है या फ्रीज्ड, लेकिन बुद्ध और गांधी के देश में इस बर्बर सजा को बनाए रखने का औचित्य समझ से परे है। कोई भी अपराधी जन्मजात नहीं होता, सामाजिक-पारिवारिक स्थितियां व्यक्ति को संक्रमित करती है जबकि मृत्यु जैसा जघन्य दण्ड किसी व्यक्तिविशेष को भुगतना होता है। जेलों का नाम सुधारगृह तो कर दिया, लेकिन वहां का रहन-सहन और परिस्थितियां इस नये नाम को कितना सार्थक कर पाती हैं, इसकी असलियत से सभी वाकिफ हैं।
राजनेता कैसे आने लगे हैं, सभी जानते हैं, नहीं जानते तो वे संसद और विधानसभाओं में अपने को जनवाने में शर्म भी नहीं करते, उन्हें समाज का आईना कह सकते हैं, क्योंकि उन्हें जो भी हैसियत हासिल है वह हमारे वोट से ही दी गई है। ऐसे में वे निर्मलमन से कुछ सकारात्मक सोचने लगेंगे इसकी उम्मीद बेमानी है। उच्चतम न्यायालय जरूर अकसर देश, समाज, लोकतंत्र के प्रति या कहें अपने मानवीय कर्तव्य पूरा करता दिखता है। मौत की सजा पाएं हुओं की लम्बे समय से लम्बित दया याचिकाओं पर वह अच्छे फैसले दे रहा है और ऐसी सजाओं को वह उम्र कैद में परिवर्तित करने लगा है। ऐसे फैसलों के साथ उसे यह व्यवस्था भी देनी चाहिए कि किस तरह के सजा-भोगियों को प्रचलित चौदह या बीस साल की उम्रकैद देनी चाहिए और किसे मृत्युपरंत ताकि मौत की सजा की पैरवी करने वाले को उन कई तर्कों का जवाब मिल सके जिनमें वह कहते रहे हैं कि ऐसे अपराधियों को खुले में छोडऩा खतरनाक हो सकता है।
रही बात राजीव गांधी के हत्यारों पर आए फैसले के बाद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और राहुल गांधी के बयानों की सो जया राजनीति कर रही हैं और राहुल हमेशा की तरह अपरिपक्वता!

20 फरवरी, 2014

2 comments:

Manoj Shah said...

good article on current issues. regards, manoj shah

maitreyee said...

बहुत अच्छा!!!