हमें चाहिए हमारी चाह व्यक्त करने वाला
एक निर्भीक कंठ
नया संविधान
नया देश
नई धरती
नया आकाश।
यह काव्य पंक्तियां कविमित्र गिरिराज किराड़ू द्वारा फेसबुक पर उद्धृत तेलुगु कवि एंडलूरी सुधाकर की उस कविता का हिस्सा है जिसका अनुवाद वी. कृष्ण ने किया है।
आजादी के छियासठ साल बाद भी लोकसभा चुनावों की दहलीज पर ठगा सा खड़ा देश फिर ठगे जाने को तैयार है। आम आवाम की चाह व्यक्त करने वाले निर्भीक कंठ की ऐसी ही चाहना पहली बार 1967 के चुनावों में देखी गई जब आजादी के बीस साल बाद उम्मीदें दरकनी शुरू हुईं। फिर पुरजोर तरीके से 1977 में। उम्मीदों का उद्वेलन 1989 में भी देखा गया पर हर बार देशवासी न केवल ठगे गये बल्कि समरसता और समानता के सामाजिक गर्त में जाने लगे हैं।
इस बाजारू युग में राजनीति को प्रोफेशन के रूप में अपनाने वाले प्रत्येक का प्रदर्शन कला में माहिर होना जरूरी है, चाहे देश में व्याप्त कई तरह की विषमताओं के समाधान उसके पास हो या न हो। एक तरफ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की संकीर्णता और आत्ममुग्धता में दीक्षित नरेन्द्र मोदी हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस को कोरपोरेट और खुद को कोरपोरेट घराने का वारिस मानने वाले राहुल गांधी। जनता दोनों से ऊबी हुई है, इसका प्रमाण वह दिल्ली में ‘आम-आदमी पार्टी’ की तव्वजो कर दे चुकी है। मोदी विकल्प नहीं विकल्प के अभाव की मजबूरी हैं। सप्रंग सरकार ने पिछले दस सालों में अपनी साख को जो बट्टा लगवाया है उसी की परिणति है आज का माहौल। जिसे चाह कर भी कांग्रेस अपने पक्ष में करती नहीं लग रही है। जो प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था हमने अपने में व्याप ली है उससे कोई बड़ी उम्मीदें करना निराशा को न्योतना होगा। मोदी छप्पन इंच के सीने पर मुंडी बाए बार-बार दहाड़ते तो हैं पर उनके दस साल से शासित राज्य में कमजोर और दलित कोई ठीक-ठाक स्थिति में भी नहीं हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 1991 के अपने वित्तमंत्रित्व काल से जिस तरह की आर्थिक नीतियों को लागू किया था उसमें नरेन्द्र मोदी जैसे शातिर और चालाक ही पनप सकते हैं और राहुल गांधी जैसे बुद्धू असफल होंगे ही। जिस देश का अधिकांश लोकमानस वर्गीय, जातीय और आर्थिक विषमताओं को भाग्य की देन मानता हो और धार्मिक स्थापनाओं को ही अंतिम, उसमें मनुष्यता का मान-सम्मान और उसकी न्यूनतम आवश्यकताएं नजरअंदाज होंगी ही।
पिछले तीस-चालीस वर्षों पर नजर डालें तो सभी तरह का भेदभाव लगातार बढ़ा है। गरीब और गरीब, धनवान और धनवान होता जा रहा है। दलितों और गरीबों में भी जिसे धनवान होने का अवसर हासिल हो गया वह चुंधियाकर उसी में रम जाता है। धर्म का दिखावा और प्रदर्शन बढ़ा है। धर्म और सम्प्रदायों में धन लगाने वालों को ही प्रतिष्ठा दी जाने लगी है बिना यह जाने कि धन अर्जित करने के उसके साधन और नीयत ठीक है या नहीं। प्रत्येक धर्मगुरु और गुरुमांए अपने-अपने संप्रदाय की प्रतिष्ठा में लगे हैं।
राजनेता हो या धर्मगुरु, बजाय लोक को शिक्षित करने के केवल उन्हें अनुयायी बनाने पर तुले हैं। अन्ना आन्दोलन के समय भी ‘विनायक’ ने एक से अधिक बार कहा है, आज फिर दोहरा रहे हैं कि व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में शिक्षित करने की जरूरत है। इस तरह का प्रयास करता कोई दीख नहीं रहा। गांधी जैसी समझ और इच्छाशक्ति की जरूरत बहुत यकीनी है अन्यथा इस देश को मोदी व राहुल जैसे नेताओं से हंकवाने को मजबूर होते रहना होगा।
24 जनवरी, 2014
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